सन्तोष चतुर्वेदी से निशान्त के कुछ सवाल

कवि मित्र निशान्त ने कुछ समय पहले मुझसे कुछ सवाल पूछे थे। इन सवालों के जवाब मैंने कुछ इस तरह दिए थे। आज ब्लॉग पर प्रस्तुत है यह साक्षात्कार।


1. आप कविताएँ क्यों लिखते हैं?


दुनिया के हर कवि की तरह मुझे भी बार-बार इस सवाल से जूझना पड़ता है कि मैं कविताएँ क्यों लिखता हूँ? अगर मैं कविता न लिखूँ तो हिन्दी साहित्य और जन (जिनके लिए मेरा लिखना होता है।) पर क्या फ़र्क पड़ेगा। इस सवाल का जवाब मेरे बचपन की उन घटनाओं में छुपा है, जो अक्सर मेरे मन को कुरेदती रहती थीं। मेरा जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले बलिया के एक पारम्परिक ब्राह्मण परिवार में हुआ। मैं जिस सन्दर्भ में पिछड़े की बात करता हूँ, वह रुढिगत परिभाषाओं से थोड़ा सा विलग है। मेरा आशय विचारों के उस पिछड़ेपन से है जो हमें मनुष्य होते हुए भी मनुष्य नहीं रहने देती। मेरा मानना है कि भौतिक रूप से समुन्नत लोग और समाज भी वैचारिक तौर पर रूढ़िवादी सोच वाले हो सकते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत सवर्ण परिवारों में छूत अछूत, ऊंच-नीच, जातिवाद आदि की भावना प्रारम्भ से ही भरनी शुरू कर दी जाती है। मैं भी अपवाद नहीं था। आठवीं तक की मेरी स्कूली शिक्षा गाँव पर ही हुई। मेरे बाबा (Grand Father) क्षेत्र के जाने माने कर्मकांडी थे। पूरा रामचरितमानस  उन्हें जैसे कंठस्थ था। महाभारत, उपनिषद, पुराणों के साथ साथ हितोपदेश और पंचतन्त्र की कहानियाँ उनसे रोज सुनता था। बचपन मे मैं अपने बाबा के अधिक करीब था। इस नाते मैं धीरे-धीरे वे सारे कर्मकाण्ड सीख गया जो हिन्दू सांस्कृतिक परम्परा में आमतौर पर बरते व्यवहृत किए जाते हैं। दूसरी तरफ एक बच्चे के तौर पर जब मैं उन असमानताओं को देखता, जो तथाकथित निम्न वर्णों के साथ होता, मेरा मन काफी खिन्न हो जाता। वेद, उपनिषद, महाकाव्यों और पुराण शास्त्रों में मनुष्य के सन्दर्भ में जिस नैतिकता की बात कही जाती, उसे तार-तार होते हुए देख कर मैं आन्तरिक तौर पर परेशान हो जाता। मेरे पैतृक गाँव में ब्राह्मणों, ठाकुरों और कायस्थों की अच्छी खासी आबादी है। साथ ही वे तथाकथित निम्न जातियाँ भी मेरे गाँव में थीं, जिनके साथ अक्सर ही उन सवर्णों द्वारा अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता था, जो अपने जातीय दम्भ में डूबे रहते थे। तब लोगों में आज जैसी सामाजिक जागरूकता नहीं थी। वे लोग शोषण की चक्की में पिसने और सब कुछ सहने के लिए अभिशप्त थे। इस मुद्दे पर अक्सर मैं अकेला पड़ जाता। मुझे चुप करा दिया जाता। परन्तु मेरा मन विद्रोह कर बैठता। और कुछ कर पाने की स्थिति थी नहीं। ऐसी स्थिति में अनायास ही मैं कविता की तरफ मुड़ा। अपनी उन तुकान्त और बचकानी कविताओं में जाति पाँति का कड़ा विरोध करता। धार्मिक समरसता की बातें करता। अन्याय का प्रतिकार करता। निम्न जातियों के हकों की बात करता। 



एक अच्छी बात यह कि मेरे पिता सुरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी घर पर अच्छी किताबें लाते। गाँधी जी की आत्मकथा, जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथा, राजेन्द्र प्रसाद की खण्डित भारत, रवीन्द्र नाथ ठाकुर की गीतांजलि, प्रेमचंद की गोदान, गबन जैसी किताबें उनकी आलमारियों में उपलब्ध थीं। तब पाठ्यक्रम के अतिरिक्त की ये किताबें पढ़ने में मेरा मन कुछ अधिक ही लगा करता। इन किताबों का मेरे मानस और मेरे लिखने पर बड़ा असर पड़ा। इन किताबों ने मेरा जीवन बदल दिया। इसी समय रोजाना रेडियो सुनने की आदत पड़ी। रेडियो के जरिए अन्य देशों के प्रसारण सेवाओं की वैश्विक सेवाओं से रु ब रु हुआ। बी बी सी, डाईचाविले (जर्मनी), एन एच के (जापान) और वाइस ऑफ अमेरिका के प्रसारण मैं नियमित तौर पर सुनने लगा। घर पर माया जैसी पत्रिका नियमित आती थी। इन सबने मेरी सोच को एक नया आकार दिया।
कविता मेरे लिए वह विधा थी जिसमें मैं ख़ुद को, ख़ुद की पीड़ाओं को कहीं अधिक सहजता से व्यक्त कर सकता था। मशहूर कवि आक्टोवियो पाज़ के शब्दों में कहूँ तो एक कवि ख़ुद से बातें करते हुए भी दूसरों से मुखातिब रहता है। वस्तुतः मेरी कविता में आपको लग सकता है कि उनमें मैं खुद को, खुद के समाज को, खुद की जनता को तलाशता हूँ और उन्हीं को केन्द्र में रखते हुए कविता लिखता हूँ। स्वाभाविक तौर पर इसके आयाम व्यापक होते हैं।



आज भी जब कोई घटना गहरे से प्रभावित करती है, आज भी जब लगता है कि मुझे चुप नहीं बैठना चाहिए तो कविता की भाषा में अपना प्रतिकार दर्ज कराता हूँ। इसका कोई विकल्प मुझे आज तक नहीं मिल पाया है। अपने घर से लेकर समाज और देश तक में ऐसी घटनाएँ रोज ही होती हैं जो सोचने वाले किसी भी व्यक्ति को अवसादित कर दे। मैं यकीनी तौर पर यह कह सकता हूँ कि कविता ने मुझे अवसाद में जाने से बचाया। इसलिए कविताएँ लिखने का क्रम आज भी अबाध रूप से जारी है।


 


2. कविता किसके लिए लिखते हैं?


सच कहूँ तो कविता मैं खुद को बचाने के लिए लिखता हूँ। जीवन में संघर्ष का क्रम कुछ ऐसा रहा, दिक्कतें कुछ ऐसी रहीं कि अगर कविता न लिख रहा होता तो अवसाद में चला जाता। अपने आसपास के लोगों और अपने समाज के प्रति जिस सोच को ले कर मैं आगे बढ़ा, वह सामान्य तौर पर मेरी खुद की बनायी हुई सोच थी। पारंपरिक राह पर चलने और कट्टरवादी होने का एक और भी सुगम रास्ता था। सफल होने का यह शॉर्ट कट रास्ता था। प्रसंगवश यह बताता चलूं कि बचपन की कहानियों में अक्सर रास्तों की बात आती। ये रास्ते दो तरह के होते। पहला रास्ता तीन तिकड़म से भरा और आसान होता। दूसरा रास्ता दुर्गम और काँटों से भरा होता। पहले रास्ते पर चलने वाले को सफलता की अनुभूति शीघ्र हो जाती। अलग बात यह कि वह सफलता अस्थायी साबित होती। दूसरा रास्ता टाइम टेकिंग होता था, खतरों से भरा होता था। जो खतरा उठाने वाले लोग होते, वही यह राह चुनते। इस रास्ते पर चल कर जो सफलता मिलती वह ठोस यानी स्थायी होती। तो मैं उनका पक्ष लेता जो दुर्गम राहों पर चलने वाले होते। ध्यान देने की बात है कि किसान, कामगार, पिछड़े वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से का जीवन अक्सर दुर्गम ही होता। उनके विकल्प अत्यन्त सीमित होते। झेलना उनके जीवन की टेक की तरह होता। समाज के उच्च वर्ग के शोषण का शिकार अक्सर यही लोग होते। इनके पक्ष में बोलने वाला प्रायः कोई न होता। इनकी अपनी जुबान नहीं होती। समाज में इन्हें हिकारत के नज़रिए से देखा जाता। मैं प्रायः इन्हीं लोगों को ध्यान में रख कर कविताएँ लिखता हूँ।


इस तरह कह सकता हूँ कि खुद को सर्वहारा वर्ग में शामिल करते हुए मैं उनके लिए कविताएँ लिखता हूँ जिनके पास जुबान तो होती है, लेकिन वे बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। मैं उनके लिए कविताएँ लिखता हूँ जो जीतने का माद्दा तो रखते हैं लेकिन जिन्हें हर बार हार ही नसीब हुई। मैं उनके लिए कविताएँ लिखता हूँ जिनके श्रम से यह दुनिया आज इतनी खूबसूरत, इतनी प्यारी दिखती है, लेकिन जो साजिशन सभी तरह की सुविधाओं से हमेशा वंचित रखे गए। मेरी कविता उस अन्नदाता के लिए है जो अन्न उगाने की भरपूर काबिलियत रखने के बावजूद भूखे पेट सोने के लिए आज तलक अभिशप्त हैं। मैं उस जन के लिए कविताएँ लिखता हूँ जो समय समय पर अपने वोट के जरिए सत्ता का निर्णय तो करते हैं लेकिन सत्ता की परिधि से दूर, सत्ताधारियों की निगाह से प्रायः ओझल रहते आए हैं। मेरे लेखन के केन्द्र में वह पृथिवी है जो संसाधनों की लूट खसोट का केन्द्र बनने के लिए लाचार है। वह हवा और पानी है, जो जीवन का मुख्य स्रोत होने के बावजूद प्रदूषित होने के लिए अभिशप्त है।


 


3. कविता कब तक लिखते रहेंगे?


जब जीवन ही सुनिश्चित नहीं तो कविता लिखने के बारे में दावे के साथ कैसे कुछ भी कहा जा सकता है? कविता चूंकि जीवन से ही निःसृत होती है इसलिए इन दोनों में बहुत कुछ साम्यता देखी जा सकती है। कविता लिखने के कारण जब तक मौजूद रहेंगे, मेरा कविता लिखना तब तक होता रहेगा। अन्याय, असमानता, अमानवीयता, जातीय-धार्मिक या नस्लीय श्रेष्ठता बोध, संकीर्ण राष्ट्रवाद जैसी भावनाएं जब तक विद्यमान रहेंगी मैं अपनी आवाज कविता के फॉर्म में उठाता रहूँगा। 


इशिकावा ताकुबोकु की एक हाइकू कुछ इस प्रकार है।


कभी-कभी 
जीवन इतना शांत होता है 
घड़ी की टिकटिक भी घटना होती है 
(अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य)


मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि एक सजग, सचेत कवि की सूक्ष्म दृष्टि के लिए कभी भी घटनाओं का अभाव नहीं रहेगा। जो कवि शीर्षक चुन कर लेखन करते हैं उनके सामने यह समस्या आ सकती है। मेरे एक मित्र कवि ने एक बार मुझसे कहा कि मैंने फलां फलां शीर्षक से कविताएँ लिख दी हैं। अब उन्हें कोई शीर्षक ही नहीं सूझता। मुझे रसूल हमजातोव की वह पंक्ति तत्काल याद आयी कि कविता के लिए शीर्षक की जरूरत नहीं बल्कि दृष्टि की जरूरत होती है।
यह अलग बात है कि व्यक्तिगत स्तर पर मैं कभी भी थोक भाव में कविताएँ नहीं लिख पाता। फरमाइश पर कविता लिखने का हुनर विकसित ही नहीं कर पाया। कविताएँ अपने अंदाज और गति में ही मुझसे रु ब रु होती हैं। सोच-विचार कर कविता लिखना कभी होता नहीं। और अगर कभी कोई पंक्ति मन मस्तिष्क में उमड़ने घुमड़ने लगी तो मुझे उसी पल उसे शब्दांकित करना होता है। चाहे रात के दो ही क्यों न बजे हों। अपनी सारी कविताएँ मैंने एक बैठकी में ही लिखी हैं। हाँ, बाद में संशोधन वगैरह के काम होते रहते हैं। संघर्ष के क्षणों में कविता अक्सर मेरे पास आती है। यात्रा करते हुए भी कई बार कविताएँ मुझे लिखने के लिए उद्वेलित करती रहती हैं। जब कभी किसी कारणवश लिखने में मैंने कोई कोताही की तो फिर वह कविता मेरे पास लौट कर नहीं आयी। कभी-कभी लिखने में कुछ अन्तराल भी आ जाता है। इस अन्तराल की वजह से कभी-कभी ऐसा लगता है कि कविताएँ शायद अब मुझसे सम्भव न हो पाए। तब तलक किसी रोज कोई कविता आराम से दरवाजा खटखटा कर कहती है मुझे शब्दबद्ध होना है। तो इस तरह अब तक मेरे कविता लिखने का यह अबाध क्रम जारी है। हाँ, जब मुझे ख़ुद ऐसा लगेगा कि अब मैं चूक गया हूँ तो जबरिया लिखने की कोशिश कतई नहीं करूंगा।


 


4. कविता में सबसे महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए?


मैं जब भी कोई कविता पढ़ता हूँ तो प्रथम दृष्टया उसमें कंटेंट की तलाश करता हूँ। जाहिर है कि मेरे  अपने लेखन में कंटेंट ही महत्वपूर्ण होता है। बीसवीं शताब्दी के अज़ीम अदीब ‘फ्रेंज काफ्का’ ने एक किताब के सन्दर्भ के बारे में बात करते हुए कहा था :  “A book must be the axe for the frozen sea within us.” अर्थात "एक क़िताब को हमारी आत्मा के भीतर जमी बर्फ़ को तोड़ने के लिए कुल्हाड़ी होना चाहिए।" काफ्का के उक्त वक्तव्य में किताब की जगह अगर रचना कर दिया जाए तो मेरी बात पूरी हो जाती है। 


मैं बहुत हद तक आक्टोवियो पाज के उस कथन से सहमत हूँ कि "कविता अवर्णनीय होती है, अबोधगम्य नहीं। कविता को पढ़ना, आंखों से सुनना है। इसे सुनना कानों से देखना है। हर पाठक एक अन्य कवि है। हर कविता एक इतर कविता है। कविता वह है जो पढ़ने वाले को उकसाये। खुद को सुनने के लिए बाध्य करे।"


मेरे लिए कविता उस जरूरत की तरह है जिसके बिना जीना सम्भव नहीं। यानी कि मेरे लिए कविता जीवनबद्ध है। हर जीवन अपनी बेतरतीबी में ही तरतीब रचता है। कविता की भी यही स्थिति है। जेहन में अगर कोई बात आयी तो उसे कविता के शिल्प में कहने, ढालने में मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं आयी। यह सप्रयास नहीं करना पड़ता बल्कि एक धारा के अन्तर्गत ऐसा खुद ब खुद हो जाता है। प्रयोग वहीं पर सम्भव होता है जहाँ किसी तरह की कोई चुनौती हो। पारंपरिक तरीके से चल कर आप कभी कोई नई लकीर नहीं खींच सकते। आपको हमेशा अपने समय के साथ चलना होता है। कोई व्यक्ति अपनी दुर्दशा के लिए  उस समय को दोषी ठहराता है तो कोई व्यक्ति अपने हुनर से विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुरूप बना लेता है।  हर व्यक्ति को खुद ही अपना समय, अपना शिल्प गढ़ना होता है। खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होती है।


कविता लिखते समय मुझे सिर्फ कविता दिखती है। जब कोई कंटेंट दिमाग में उमड़ता है तभी मैं कविता लिख पाता हूँ। कविता लिखने मात्र के लिए, या कविता का बना बनाया शिल्प दुहराने तिहाराने के लिए मैंने कभी कलम नहीं थामी। कह सकते हैं योजना बना कर कविता मैंने कभी लिखी ही नहीं। कविता लिखते समय कविता की आन्तरिक लय अपने आप बनती चली जाती है। रही सही कमियाँ कविता का पाठ पूरा कर देता है। और इस तरह प्रारम्भिक तौर पर कविता अपने फॉर्म में अपना आकार ग्रहण कर लेती है।


वैसे दुनिया का हर कवि अलहदा होता है और अपनी राह चुनने के लिए स्वतन्त्र होता है। एक तरह से यह उस कवि का निजीपन होता है। इसी से उसकी मौलिकता निर्मित होती है। तो कवि के ऊपर ही इस सवाल को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए कि किसे वह महत्वपूर्ण माने, किसे नहीं। किसी भी कविता में अगर सहजता, बोधगम्यता और सम्प्रेषणीयता है, मनुष्यता की पक्षधरता है तो फिर मेरे ख्याल से वह सफल कविता हो सकती है।


नरेश सक्सेना की एक कविता है शिशु। यह इन तरह से है।


शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है


अभी वह अर्थ समझता है
बाद में सीखेगा भाषा।


नरेश जी की बात उधार ले कर कहूँ तो अगर कवि के पास कंटेंट है तो शिल्प अपने आप बनता चला जाता है। इसके लिए कवि को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं होती।