स्कंद शुक्ल
कोरोना वायरस
(डॉक्टर स्कंद शुक्ल पेशे से चिकित्सक होने के साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी हैं, और फेसबुक पर न केवल कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर, बल्कि मेडिकल साइंस और स्वास्थ्य से सम्बंधित अन्य विषयों पर भी अत्यंत शोधपरक, तथ्यपरक और नवीनतम लेख लिखते रहे हैं, जिनसे बहुत सी गुत्थियां सुलझती रहती हैं। कोरोना वायरस के उद्भव और उसके इतने प्रभावी होने की विकास यात्रा पर इससे अच्छा और सरलता से समझ में आने वाला आलेख मैंने कहीं और नहीं पढ़ा। आपको भी पढ़ना चाहिये।)
"चीन के हुबेई राज्य में 'फ़्लू-जैसी' इस नयी बीमारी के फैलने की रिपोर्टों से काफ़ी पहले एक चमगादड़ (या एक पूरा चमगादड़-समूह) शायद उस इलाक़े में एक नये कोरोना-विषाणु के साथ उड़ रहा था। उस समय यह विषाणु मनुष्यों के लिए ख़तरनाक नहीं था। किन्तु नवम्बर के अन्त तक इस विषाणु की आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) में कुछ और बदलाव हुए और यह कदाचित् उस विषाणु में बदल गया, जिसे हम आज सार्स-सीओवी 2 के नाम से जानते हैं। आरएनए में कुछ छोटे-से बदलाव हुए और पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी की शुरुआत हो गयी।
शुरू में जेनेटिक स्तर पर हुए इन बदलावों पर ध्यान नहीं दिया गया : कोरोनाविषाणुओं से हमारे वायरोलॉजिस्ट पहले से परिचित रहे हैं। ये विषाणु हममें तरह-तरह की बीमारियाँ करते रहे हैं , पर इन पर 'उतना' ध्यान और इनके लिये 'उतनी' रिसर्च-फंडिंग नहीं दी जाती रही, जितनी इन्हें मिलनी चाहिए थी-- येल विश्वविद्यालय के वायरोलॉजिस्ट क्रेग विलेन बताते हैं। सन् 2003 में एक चमगादड़ से आये कोरोनाविषाणु से दुनिया यद्यपि आतंकित हुई थी : इस विषाणु ने तब 774 लोग मार डाले थे। फिर 2012 में ऊँटों से फैलने वाले कोरोना-विषाणु से हमें मिडिल ईस्टर्न सिण्ड्रोम नामक रोग मिला : इसके कारण भी 884 लोगों की मृत्यु हुई। (यह विषाणु अब भी बीच-बीच में लोगों को संक्रमित करता रहा है।) लेकिन रिसर्च करने वालों और इस पर धन व्यय करने वालों का ध्यान इन्फ़्लुएन्ज़ा विषाणुओं पर अधिक रहा : बर्ड फ़्लू जैसे वायरसों के अध्ययन पर ज़ोर दिया जाता रहा, जो हर साल समाज में फैलते हैं और लोगों को मारते रहते हैं।
वर्तमान कोविड 19 पैंडेमिक ने सबक दिया कि विज्ञान-कर्म करने वाले अगर एक दिशा में ही सोचेंगे, तो कितना बड़ा ख़तरा मनुष्यता के सामने आ सकता है। ऐसा नहीं है, कि किसी वैज्ञानिक ने शोर नहीं मचाया या सजग नहीं किया। सन् 2015 में एपिडेमियोलॉजिस्ट रैल्फ़ बारिक ने उत्तरी कैरोलाइना में चमगादड़ के कोरोना-विषाणुओं के जीनों का अध्ययन किया और चेताया कि 'चमगादड़ों में मौजूद कोरोना-विषाणुओं से नये सार्स -सीओवी विषाणु जन्म ले सकते हैं।' अगले साल उन्होंने फिर कहा कि चमगादड़ के कोरोना-विषाणुओं के मानव-प्रवेश से दूसरे सार्स-जैसे रोग का ख़तरा विद्यमान है।
चमगादड़ अनेक नयी मानव-बीमारियों का रिज़रवॉयर बना हुआ है। सैकड़ों प्रकार के कोरोना-विषाणुओं से युक्त ! इनमें से अधिकांश इनके शरीरों में आराम से चुपचाप रहते और वृद्धि किया करते हैं। चमगादड़ इनसे बीमार नहीं पड़ते। लेकिन वृद्धि के दौरान हर जीव में रैंडम जेनेटिक बदलाव होने स्वाभाविक हैं : चमगादड़ के कोरोना-वायरसों में भी ये हुआ करते हैं। कभी-कभी ये म्यूटेशन कहे जाने वाले बदलाव किसी ख़ास कोरोना-विषाणु को यह योग्यता प्रदान कर देते हैं कि वह दूसरे जानवरों अथवा मनुष्यों को भी संक्रमित कर सके। यह म्यूटेशनीय सफलता विषाणु के हाथ लगी जीवन की लॉटरी है : इसका लाभ लेकर उसे चमगादड़-देह के साथ एक नयी प्रजाति की देहें मिलती हैं। मनुष्य की!
चमगादड़ से मनुष्य में आने और पनपने के लिए दो म्यूटेशन बड़े महत्त्व के सिद्ध हुए : पहला उन प्रोटीनों में जो विषाणु की देह पर से फूलगोभी की तरह निकली रहती हैं (अगर आपने सार्स-सीओवी 2 की संरचना देखी हो)। इन प्रोटीनों को स्पाइक कहा जाता है और इनके द्वारा यह विषाणु मानव-कोशिकाओं की एक ख़ास प्रोटीन एसीई 2 से चिपकता या जुड़ता है। यह मानव-प्रोटीन श्वसन-तन्त्र में मौजूद होती है। स्पाइक प्रोटीनों की मौजूदगी के कारण ऐसा लगता है कि इस विषाणु की देह पर मुकुट लगे हुए हैं : कोरोना का शाब्दिक अर्थ ही मुकुट है। (कोरोना-विषाणु यानी मुकुटीय या मुकुटधारी विषाणु।)
दूसरे आनुवंशिक बदलाव के कारण इस कोरोना-विषाणु के जिस्म पर एक खंजरनुमा प्रोटीन उग आती है, जिसे फ्यूरिन कहते हैं। इस खंजर-प्रोटीन फ्यूरिन के कारण यह विषाणु मज़बूती से यह मानव गले और फेफड़ों की कोशिकाओं से चिपक जाता है। फ्यूरिन-प्रोटीन ने ही इस कोरोना विषाणु को इतना संक्रामक और मारक बना दिया है : ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं। (फ्यूरिन की मौजूदगी केवल इसी विषाणु की देह पर होती हो ,ऐसा नहीं है। अनेक अन्य विषाणु जैसे ऐन्थ्रैक्स व कई बर्डफ्लू भी इस खंजर-प्रोटीन के प्रयोग से मानव-कोशिकाओं में प्रवेश पाया करते हैं।)
हो सकता है कि ये म्यूटेशन तब ही हो गये हों, जब यह विषाणु चमगादड़ों के ही भीतर रहा हो। या फिर पहले-पहल संक्रमित होने वाले मनुष्यों के भीतर इस विषाणु ने इन प्रोटीन-म्यूटेशनों का विकास किया हो। अथवा चमगादड़ से यह विषाणु पहले पैंगोलिन-जैसे जीव में गया हो और वहाँ इनसे संक्रामक-घातक जेनेटिक बदलाव पाये हों। ध्यान रहे कि पैंगोलिन का मांस चीनियों में स्वाद के लिए लोकप्रिय रहा है और वे इसका प्रयोग औषधियों के निर्माण में भी किया करते हैं।
विषाणु का एक जीव-प्रजाति से दूसरी प्रजाति में जाना 'स्पीशीज़-जम्प' कहलाता है। जंगली पशुओं से मनुष्यों में इस तरह से आये रोग ज़ूनोसिस कहे जाते हैं। पशु से मनुष्य में और फिर मनुष्य से मनुष्य में फैलते हुए विषाणु के जीनों में लगातार बदलाव होते रहते हैं, जिन पर लगातार ध्यान रखना ज़रूरी है। यह सतर्कता ही बता पाएगी कि विषाणु कहीं और तो नहीं बदल रहा। कहीं वह और मारक या संक्रामक तो नहीं हो रहा? कहीं वह किसी अन्य जानवर में तो नहीं फैल रहा? इन-सब बातों का महत्त्व विषाणु के फैलाव को कम करने और उसके ख़िलाफ़ औषधि या वैक्सीन के निर्माण में आवश्यक है। अभी तक सार्स-सीओवी 2 के और अधिक मारक या संक्रामक होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं।
क्या विकासवादी दृष्टिकोण से सार्स-सीओवी 2 सफल है? हाँ। बेहतरीन ढंग से यह हम-मनुष्यों में फैल रहा है : चूँकि यह फैल पा रहा है, तो इसे जेनेटिक बदलाव की भला क्या ज़रूरत है? इसपर एवल्यूशन का कोई दबाव नहीं है। इसकी तुलना आप हर साल फैलने वाले फ़्लू से कीजिए। फ़्लू यानी इन्फ़्लुएन्ज़ा-विषाणुओं के पास कम जीन मौजूद हैं, किन्तु वे हर साल अपने जीनों में बदलाव करते रहते हैं। इतनी तेज़ी से नहीं बदलेंगे, तो हमें-आपको बीमार कैसे कर पाएँगे? ज़ुकाम हर साल बार-बार कैसे होगा? फिर ये फ़्लू विषाणु सूअरों-पक्षियों को भी संक्रमित करते रहते हैं। यानी अलग-अलग प्रजातियों में जाते हुए, अपना होस्ट बदलते हुए ये जेनेटिक बदलाव जमा करते रहते हैं।
सार्स-सीओवी 2 की तुलना तनिक एचआईवी-विषाणु से कीजिए। एचआईवी-विषाणु का पूर्वज-विषाणु बिना कोई रोग पैदा किये अफ्रीकी बन्दरों में रह रहा था। फिर यह चिम्पैंज़ियों में फैला और यहीं इसने आधुनिक एचआईवी का प्रारूप विकसित किया। एड्स का पहला मानव-मरीज़ सन् 1931 के आसपास दक्षिणपश्चिमी कैमरून में पाया गया : सम्भवतः कोई व्यक्ति चिम्पैंज़ी का मांस काट रहा था और उसे घाव लगा, यहीं से विषाणु का मानव-शरीर में प्रवेश हुआ। तब भी लम्बे समय तक एचआईवी मनुष्यों में विरला संक्रमण था : ग्रामीणों में ही जब-तब मिलने वाला, जब तक कि यह कॉन्गो-लोकतान्त्रिक-गणराज्य की राजधानी किन्शासा नहीं पहुँच गया। गाँव से शहर में एचआईवी का पहुँचना इस विषाणु के विश्वव्यापी फैलाव में बहुत बड़ा पड़ाव माना जाता है।
सन् 1981 में जब एचआईवी को पश्चिम ने जाना, तब लोग डर रहे थे कि कहीं यह विषाणु म्यूटेशन करके और मारक तो नहीं हो जाएगा ! कहीं एचआईवी हवा से तो नहीं फैलने लगेगा ! तब कोई नहीं जानता था कि एचआईवी को मनुष्यों की देह में रहते हुए बिना बहुत बदलाव किये चार दशक हो चुके हैं। एचआईवी और (बहुत अधिक) मारक या संक्रामक नहीं हुआ, यद्यपि यह पूरी दुनिया में खूब फैला और आज भी बना हुआ है। आज हमारे पास ऐसी एंटीरेट्रोवायरल दवाएँ उपलब्ध हैं, जिनके सेवन के साथ ढेरों एचआईवी-पॉज़िटिव रोगी लम्बा जीवन जी सकने में सफल हैं।
सार्स-सीओवी 2 यदि अपने-आप को फ़्लू विषाणु की तरह नहीं बदलता और एचआईवी की तरह जेनेटिक स्तर पर लगभग स्थिर बना रहता है, तब भी इसे पूरी तरह काबू करने में सालों लग सकते हैं। इतने समय में और भी विषाणु जंगली पशुओं से मनुष्यों में आ सकते हैं : स्पीशीज़-जम्प और ज़ूनोसिस के नये मामले खुल सकते हैं।
सबक क्या हैं? वायरोलॉजी में काम कर रहे वैज्ञानिकों को आसानी से कोरोना-विषाणुओं पर रिसर्च करने के लिए फण्ड दिये जाएँ ( इस समय मिलेंगे भी !) और अगली पैंडेमिक की भली-भाँति तैयारी की जाये, क्योंकि यह अन्तिम महामारी नहीं है। चीन-सरकार ने भोजन व दवाओं के लिए ज़िंदा जंगली जानवरों की ख़रीद पर अनियमित वेट मार्केटों में रोक लगा रखी है। चीन ने सार्स के समय भी यही किया था, जब बताया गया था कि चमगादड़ों से सिवेट नामक बिल्लीनुमा जन्तु में होते हुए नया कोरोना-विषाणु मनुष्यों में आया है। पर परम्परा और भ्रष्टाचार कब-तक संयमित रह सकते हैं? चुपचाप वन-मांस-मण्डियाँ फिर खोल दी गयीं और नतीजा फिर सामने है।
--- Skand Shukla
(येल विश्वविद्यालय के मॉलीक्यूलर-सेल्युलर बायलॉजी के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट बज़ेल के शानदार विचारों को पढ़ते हुए।)