संजय कुंदन की कविता 'दंगाई'

संजय कुंदन 


दंगाई


 


दंगाइयों में थे वे भी शामिल
जिनकी अभी ठीक से मूंछें भी नहीं आईं थीं
चौदह से सोलह साल के वे नौजवान
जिन्हें कक्षाओं में होना था 
पुस्तकालयों में होना था
खेल के मैदानों में होना था
सड़क पर दिखे हाथ में सरिया और कट्टे लिए


उनमें से एक इतना तेज दौड़ता था 
जैसे कोई धावक हो
अगर उसे ओलिंपिक में भेजा जाता 
तो क्या ठिकाना, वह कोई पदक ले आता


कोई कलाइयों को घुमाकर पत्थर फेंक रहा था
वह एक अच्छा फिरकी गेंदबाज हो सकता था


कभी वे भी चढ़ रहे थे शिक्षा की सीढ़ियां
पर लौटना पड़ा बीच रास्ते से
जो हाथ कूची थाम सकते थे, वे पेचकस चलाने लगे
बर्तन मांजने या लोहा काटने-जोड़ने में लग गए


और जब एक दिन उन्हें हथियार थमाए गए
उन्हें पहली बार अहसास हुआ 
वे भी किसी लायक हैं
उनकी भी कोई पूछ है 


उन्होंने गाड़ियों के शीशे उसी तरह
चूर-चूर किए
जिस तरह उनकी इच्छाएं चूर-चूर हुई थीं
उन्होंने मकानों को उसी तरह राख कर देना चाहा 
जिस तरह उनके सपने राख हुए थे 


वे एक नकली दुश्मन पर अपना 
गुस्सा उतार रहे थे


उनका असली दुश्मन बहुत दूर बैठा
उन्हें टीवी पर देखता हुआ 
मुस्करा रहा था।  


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