मुनेश त्यागी का आलेख 'काकोरी  की स्वर्णिम कथा'                    

काकोरी  की स्वर्णिम कथा
                    


मुनेश त्यागी 


 


आज काकोरी स्वर्णिम कथा की 92वीं पूर्ववेला का दिन है। 9 अगस्त 1925 को काकोरी के पास हिंदुस्तानी रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों ने बिस्मिल के नेतृत्व में अंग्रेजी खजाना लूट लिया था जिसका इस्तेमाल अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई में किया जाना था ।



      खजाने को लूटने में 25 सदस्यों ने भाग लिया था जिनमें से कुछ को सजा-ए-मौत दी गई, कुछ को काला पानी और बाकी को कई  कई साल की सजा दी गई थी। इसमें चंद्रशेखर आजाद पकड़े नहीं जा सके थे। 



      काकोरी कांड में 19 दिसंबर 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर में, अशफाक उल्ला खान को फैजाबाद में, रोशन सिंह को इलाहाबाद में और इससे पहले 17 दिसंबर 1927 को ठाकुर रोशन सिंह को गोंडा में फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था।



     यहां पर सवाल उठता है कि आखिर हमारे यह शहीद क्या चाहते थे? हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ने 1 जनवरी 1925 को "रिवोल्युशनरी" नाम का एक पर्चा पूरे देश में बांटा। उसमें मांग की गई थी की संसार में पूर्ण स्वतंत्रता हो, सब आजाद हों,  प्रकृति की देन पर सबका अधिकार हो, कोई किसी पर शासन ने करें, लोगों के पंचायती राज हो, हमारे देश में गणतंत्र और जनतंत्र का शासन हो।



    हमारे शहीद चाहते थे कि हमारे देश में ना भूख हो, ना नग्नता हो, अमीरी  गरीबी हो, ना जुल्म हो, ना अन्याय हो, सब जगह प्रेम हो, एकता हो, आजादी हो, इंसाफ हो,भाईचारा और सुंदरता हो। हमारे शहीद यही सपने देखते थे।



    बिस्मिल और अशफाक की आखिरी इच्छा थी कि जैसे भी हो हिंदू मुस्लिम एकता कायम करें, यही हमारी आखिरी इच्छा है और यही हमारी यादगार भी हो सकती है।काकोरी कांड में मेरठ के स्वतंत्रा सेनानी विष्णु शरण दुबलिश भी शामिल थे जिन्हें 10 साल की सजा दी गई थी।



    ये शहीद जेल से जब सुनवाई के लिए कोर्ट आते थे तो वह गाया करते थे कि,,,,



 सरफरोशी की  तमन्ना अब हमारे दिल में है
 देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।



    बिस्मिल ने फांसी के तख्ते  पर खड़ा होकर कहा था कि "मैं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पतन चाहता हूं" और फिर यह  शेर कहकर फांसी के तख्ते पर चढ़ गए,,,,



अब  ना  एहले  वलवले हैं
और न अरमानों की भीड़,
देश पर  मिटने की हसरत 
अब दिल ए बिस्मिल में है।



     जब राजेंद्र सिंह लाहिडी, जो समाजवाद और साम्यवाद विचारधारा में सबसे ज्यादा पारंगत  थे, को फांसी के लिए ले जाना चाहा गया तो उन्होंने कहा था कि मैं भारत की आजादी के लिए फिर जन्म लूंगा और मुझे हथकड़ी लगाने की जरूरत नहीं है, मुझे बताइए, मैं फांसी के तख्ते की तरफ बिना हथकड़ी के ही चल चलता हूं और फिर  इतना कहकर बिना हथकड़ी के ही फांसी के फंदे की तरफ चल पड़े।



    फांसी लगने से पहले शहीद अशफाक उल्ला खान ने कहा था कि "हम किसी भी तरह से क्रांति लाना चाहते थे  और भारत को आजाद कराना चाहते थे। मैं अपने भाइयों से अपील करूंगा कि वह हिंदू मुस्लिम के नाम पर आपस में ना लड़े झगडें और जैसे भी हो आजादी की क्रांति के लिए तैयारी करें"।



    फांसी लगने के वक्त से पहले शहीद ठाकुर रोशन सिंह सुबह-सुबह दंड बैठक लगा रहे थे, जब उनसे यह पूछा गया कि आप यह सुबह-सुबह फांसी लगने से पहले दंड बैठक क्यों लगा रहे हैं तो उन्होंने कहा था कि "मैं फिर  जन्म लूंगा और मैं चाहता हूं की मैं क्रांति करने के लिए फिर से बलवान और बलिष्ठ ही पैदा होंऊ "



     तो ऐसे थे हमारे प्यारे शहीद, जिनको फांसी से कोई डर नहीं लगता था, जो आजादी के दीवाने थे, आजादी के आशिक थे और इसी दीवानगी में उन्होंने बिना किसी शिकायत के फांसी की सजा को कबूल किया।



     हमारे शहीदों का कहना था कि जो कौम अपने शहीदों को याद नहीं रखती, अपने शहीदों को भूल जाती है वह कौम कभी आजाद नहीं हो सकती और हमेशा गुलाम रहने के लिए अभिशप्त रहती है।
   हम अपने प्यारे शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि कुछ इस तरह से देंगे,,,



शाह  रात  में   रोशन  किताब   छोड़   गए,
वे  चले  गए  मगर  अपने  ख्वाब छोड़ गए,
हजार जब्र हों लेकिन यह फैसला है अटल
वो  जहन  जहन   में  इंकलाब  छोड़  गए।