डॉ राजू रंजन प्रसाद का आलेख 'सहजानंद सरस्वती और किसान आंदोलन'

सहजानंद सरस्वती और किसान आंदोलन


 


डॉ राजू रंजन प्रसाद


 


राष्ट्रीय स्तर पर सामंत विरोधी संघर्षों एवं किसान आंदोलनों की एक नई लहर सन् 1920 ई. में शुरू हुई। संयुक्त प्रांत का अवध क्षेत्र किसान सभा आंदोलन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार था। वहां के तालुकेदारों के असहनीय शोषण और उत्पीडन के चलते किसान बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में जुझारु संघर्ष छेड़ चुके थे जो कई बार हिंसात्मक रूप धारण कर लेता था। पुनः केरल के मालाबार जिले का प्रसिद्ध मोपला विद्रोह प्रारंभिक विस्फोटों की एक लंबी कड़ी के परिणामस्वरूप अगस्त 1912 में फूट पड़ा। यह विद्रोह मूलतः जेनमी या भूस्वामियों के खिलाफ विक्षोभ पर आधारित था। मगर चूंकि किसान-बटाईदार मुख्यतः मुस्लिम थे और जेनमी मुख्यतः हिन्दू, इसलिए संघर्ष ने धीरे-धीरे स्पष्टतः सांप्रदायिक स्वरूप अपना लिया। कांग्रेस चूंकि अब तक मध्यवर्ग के लोगों की ही संस्था बनकर काम कर रही थी इसलिए इन किसान आंदोलनों का इसके साथ कोई अंतरंगता कायम न हो सकी थी। ये किसान आंदोलन कांग्रेस से बिल्कुल अलहदा थे। देशव्यापी जो असहयोग आंदोलन आरंभ हो रहा था, उसका इससे कोई ताल्लुक न था। यही क्यों, खुद कांग्रेस की भी शुरू के दिनों में बराबर यही मांग थी कि जहां-जहां अभी बंदोबस्त नहीं हो पाया है, वहां स्थायी बंदोबस्त कर दिया जाय कि जिससे जमींदारों के अधिकारों की रक्षा हो सके, और उसमें किसानों का कहीं जिक्र तक न रहता था। 


 


उपरोक्त राष्ट्रीय-प्रादेशिक परिदृश्य के बीच स्वामी सहजानंद सरस्वती ने सन् 1920 ई. में सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। स्वामी जी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक गांधीवादी के रूप में की थी। उन्होंने गांधीजी के प्रत्येक आदेश का पालन अक्षरशः करने की कोशिश में चरखा और तकली चलाना भी शुरू कर दिया था। कांग्रेस के प्रतिनिधि की हैसियत से उन्होंने कांग्रेस के सभी वार्षिक अधिवेशनों में भाग लिया। किसान क्रांति को साम्राज्यवाद के विरुद्ध चल रहे संघर्ष का एक अभिन्न अंग मानते हुए स्वामी जी की धारणा थी कि शोषित बहुमत के सहयोग के बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सफलता संदिग्ध है। किसान समस्याओं के प्रति अपनी सतत् जागरूकता, निष्ठा एवं कटिबद्धता के कारण ही स्वामी जी ने 1928 में पटना तथा 1929 में सोनपुर मेले में जिला स्तरीय किसान सभाओं का आयोजन किया एवं बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की। कहना अनावश्यक है कि 1929 में किसान सभा की शुरुआत गांधीवादी समझौते के सिद्धांत की नीति के तहत की थी।


 


किंतु सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान स्वामी जी की जेल-यात्रा और वहां के अनुभव तथा 1934 के भूकंप से उत्पन्न परिस्थितियों में किसानों पर जमींदारों द्वारा किये गये अत्याचार ने स्वामी जी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि गांधीवादी रास्ते से जमींदारों-पूंजीपतियों के हृदय की कल्पना करना भी सत्य से दूर भागना है। भूकंप के बाद महात्मा गांधी के बिहार के दौरे के समय स्वामी जी और गांधीजी के बीच जमींदारों के आतंक से संबंधित विस्तृत वार्ता हुई। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने बताया कि किसानों को खेतों से बालू के ढेर निकालने के लिए जो रिलीफ या कर्ज सरकार या विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा दिया जा रहा था उसे भी जमींदार लोग बलपूर्वक मालगुजारी के एवज में अपने सिपाहियों द्वारा वसूल कर रहे थे। प्रसंगवश, इन जमींदारों में दरभंगा महाराज भी एक थे। लेकिन गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘ये शिकायतें यदि दरभंगा महाराज को मालूम हो जाय तो मुझे विश्वास है कि वह जरूर उन्हें दूर करेंगे। श्री गिरीन्द्र मोहन मिश्र उनके मैनेजर हैं। वह कांग्रेसी भी हैं।’ स्वामी जी ने लिखा है, ‘उस दिन की बात के बाद उनपर, गांधीजी पर, मेरी अश्रद्धा हो गयी और उसी दिन से मैं सदा के लिए उनसे अलग हो गया। उस भूकम्प के बाद ही यह दूसरा मानसिक भूकम्प मेरे अन्दर आया।’18


 


1933 के अप्रैल एवं 1935 के नवंबर के बीच की अवधि में बिहार के दस जिलों में लगभग पांच सौ किसान सभाएं आयोजित की गईं। 1937 के हाजीपुर में प्रांतीय किसान सम्मेलन के साथ-साथ इन जिलों में सैकड़ों छोटी-बड़ी किसान सभाएं भी आयोजित हुईं। पटना में 88, गया में 38, मुंगेर में 57, शाहाबाद में 39, भागलपुर में 22, दरभंगा में 38, मुजफ्फरपुर में 43, सारण में 19, पूर्णियां में 13 तथा चंपारण में 2 किसान सभाओं को स्वामी जी ने संबोधित किया। यद्यपि किसान सभा उस वक्त मुख्यतः धनी और मध्यम किसानों के ऊपरी हिस्सों का ही प्रतिनिधित्व करती थी फिर भी आम किसान भी इस सभा की ओर आकर्षित होने लगे थे क्योंकि किसानों का हित जिससे सधे इस पर वह कुछ भी करने को तैयार थे। किसानों के संगठन में वैज्ञानिक विचारों के प्रवेश और समावेश तथा राष्ट्रीय आंदोलन के साथ नाता जुड़ने से किसान आंदोलन में एक उभार आने लगा। 


 


किसान सभा के उद्देश्यों में बिना मुआवजा के जमींदारी उन्मूलन के प्रस्ताव का स्वामी जी ने 1934 ई. में विरोध किया था पर 1935 के सम्मेलन में उन्होंने स्वयं इस प्रस्ताव को पेश किया। 1936 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन ने किसानों की कई मांगों को अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया। उसी साल फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन ने इसी आधार पर अपना कृषि-सुधार प्रस्ताव तैयार किया। 1937 में नेहरु ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि फैजपुर कृषि कार्यøम का ‘महान महत्त्व’ है। 1937 में नेहरु का यह भी मानना था कि ‘भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या किसान समस्या है, बाकी सब गौण हैं।’ उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘हमें अपनी प्रतिज्ञाओं के प्रति ईमानदार रहना है और किसानों की आशाओं को संतुष्टि और पूर्णता प्रदान करनी है। किसानों और किसान सभाओं ने कांग्रेस अध्यक्ष के इन सार्वजनिक वक्तव्यों का स्वागत किया।


 


फैजपुर का यही कृषि-सुधार प्रस्ताव आनेवाले चुनाव के लिये घोषणा पत्र का आधार बना और कांग्रेस की जीत करा दी। कुछ ही महीने के बाद छपरा जिले के मसरख में प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन ने किसान सभा के जमींदारी उन्मूलन वाले प्रस्ताव को स्वीकृत कर लिया। उत्साह में आकर कांग्रेस के अंदर जितने कांग्रेस सोशलिस्ट या अन्य थे, सबों ने मिलकर एक बैठक में स्वामी जी, राहुल जी और किशोरी प्रसन्न सिंह को लेकर एक उपसमिति बनायी। उपसमिति का काम इसी प्रस्ताव के आधार पर कांग्रेस प्रतिनिधियों का चुनाव करना था। ख्याल यह था कि यदि प्रतिनिधियों के चुनाव में बहुमत प्रतिनिधि इसी विचार के हो जायें तो प्रांतीय कांग्रेस कमिटी मंत्रिमंडल को जमींदारी उन्मूलन कानून बनाने का आदेश देती। किंतु एक बार सत्ता में पहुंचने के बाद यह नेतृत्व सामान्यतः वाम को और विशेषतः किसान सभा को नियंत्रित करने के साधनों और रास्तों की तलाश करने लगा। सरदार पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को एक पत्र में लिखा: ‘किसान सभा भविष्य में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करेगी और मेरा पक्का मत इसके गठन के विरुद्ध रहा है। वे उस समय का इंतजार कर रहे हैं जब वे हमें हटा सकेंगे। इसीलिए मैं उनको महत्त्व नहीं देता। हमें कलकत्ता में स्थिति का संभलकर सतर्कता से सामना करना होगा। कुछ महीनों बाद हम उनके द्वारा पैदा की हुई स्थिति को नियंत्रित करने के योग्य नहीं रहेंगे।’ 


 


अक्तूबर 1937 में कलकत्ता की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में दक्षिणपंथियों ने शिद्दत से महसूस किया कि उन्हें संगठित होना चाहिए। जयरामदास दौलतराम की सलाह कि ‘हमें अब अधिक बैठे नहीं रहना चाहिए’ को क्रियान्वित किया गया। यह हिदायत जारी की गई कि सभी ‘परंपरावदी कार्यक्रम वालों को मिल जुलकर काम करना चाहिए’ अन्यथा ‘भविष्य में बहुत बड़ी कठिनाई’ आ सकती है। पटेल ने प्रसाद को स्पष्ट भाषा में लिखा कि:  ‘बापू प्रसन्न नहीं हैं...हरिपुरा में हमें किसी भी तरह से संघर्ष करना होगा...कृपया प्रतिनिधियों के चुनाव पर नजर रखें, सभी गांधी विरोधी तत्त्वों को निकाल बाहर कीजिए। संयुक्त मोर्चे के नाम पर अव्यवस्था की ताकतों को हम सहन नहीं करेंगे। हमारी सहनशीलता का वे नाजायज फायदा उठा चुके हैं किंतु अब दृढ़ कदम उठाने का समय आ गया है।’ 


 


बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के सदस्य और बिहार किसान सभा के अध्यक्ष सहजानंद को चंपारण, सारण और मुंगेर जिलों की कांग्रेस कमिटियों ने निर्देश दिया कि वे उनके जिलों की यात्रा न करें। दिल्ली की कांग्रेस महासमिति की बैठक में आलाकमान की ओर से एक प्रस्ताव आया कि प्रांतीय कांग्रेस कमिटी की अनुमति के बिना कोई कांग्रेसजन किसान संघर्षों में नहीं पड़ सकता। गांधीजी के हस्तक्षेप पर उस समय प्रस्ताव को आलाकमान ने वापस कर लिया। पर कुछ ही दिनों बाद यही प्रस्ताव बंबई कार्यसमिति द्वारा स्वीकृत करा दिया गया। यही नहीं, प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि कोई कांग्रेसजन इस प्रस्ताव के खिलाफ कहीं बोल नहीं सकता। स्थानीय कांग्रेसियों को धमकी दी गई कि यदि वे उसकी बैठकों में गये तो उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। गौरतलब है कि यह प्रतिबंध उस समय लगाया गया जब दक्षिणपंथी कांग्रेसियों ने जमींदारों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। उन दोनों ने किसान आंदोलन को कुचलने के लिए आपस में गंठजोड़ कर लिया था। यह प्रसंग चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह द्वारा राजेन्द्र प्रसाद को लिखे गये पत्र से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है: ‘मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूं कि जहां भी हमें मिलकर कार्रवाई करने से लाभ होता है, वहां हमें मिलकर काम करना चाहिए। मेरी पूर्ण इच्छा है कि इस संबंध में आपको पूर्ण सहयोग दूं।’


 


जमींदारों के एजेंटो और दक्षिणपंथियों के अनुयायियों ने जिलों से सहजानंद की यात्रा को असफल करने की अपनी ओर से भरसक कोशिश की किंतु किसानों ने बड़ी संख्या में पहुंचकर उनकी कोशिशों को विफल कर दिया। सहजानंद बिहार प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य थे किंतु दक्षिणपंथियों के समर्थन से निचले स्तर की कांग्रेस समितियों ने उनके विरुद्ध ‘अनुशासनात्मक कार्रवाई’ की। प्रदेश कांग्रेस समिति ने बाद में इस कार्रवाई का समर्थन किया। किसान सभा को अपना पक्ष रखने का कोई अवसर नहीं दिया गया। सहजानंद सरस्वती ने नागरिक स्वतंत्रता का मामला उठाया किंतु प्रसाद और पटेल सभी स्तरों पर किसान सभा का विरोध करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। अंततः स्वामीजी और किशोरी प्रसन्न सिंह तीन साल के लिए कांग्रेस से बाहर किये गये।