भरत प्रसाद की कविता 'हमारे  सपनों   की  ललछौंह सुबह'

हमारे  सपनों   की  ललछौंह सुबह


भरत प्रसाद


 


तुम्हारे अनगिनत दमन के विरुद्ध
आंधी बनकर उठी हमारी आवाजें
तीर से भी गहरी चुभती है तुम्हारी आत्मा में
दम के दम पर आकाश में झूमती हुई
हमारी बेखौफ़ मुट्ठियों की कतारें
विषम आग लगा देती हैं तुम्हारे सीने में
हमारी खामोश आंखों के इरादे तौलने की चूक
सत्ता के नशे में नाचती अपनी निगाहों से मत करना
हमारे हौसले की बुलंदी को मात देने का सपना
तुम्हारा कभी पूरा नहीं होगा!


अंग-प्रत्यंग पर घाव करती तुम्हारी तानाशाही मार
चट्टान बना देती है, हमारे मशाली सपने
जगह बेजगह से बहते खून ने
मिटा दिया है,लड़ने का रत्ती भर भय
एक एक चोट से निकली अनगिनत कराह
देखना!
परिवर्तन की पुकार बनेगी एकदिन


जब हम हंसते हैं, 
तो संकल्प खिल उठता है रोम रोम में
जब मौन रहते हैं तो
देश का दुःख चूता है आत्मा में
हम जैसे ही तनकर अड़ गये
समझ लेना---
हमारे सपनों की ललछौंह सुबह आने वाली है।


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भरत प्रसाद: जनवरी-2020