कवि नामवर सिंह की कविताएँ और सॉनेट
1. आज तुम्हारा जन्मदिवस
आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या ।
पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे ।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे ।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
'सेवा उपवन', पुष्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया ।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा।
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
2. मंह मंह बेल कचेलियाँ
मँह-मँह बेल कचेलियाँ, माधव मास
सुरभि-सुरभि से सुलग रही हर साँस
लुनित सिवान, सँझाती, कुसुम उजास
ससि-पाण्डुर क्षिति में घुलता आकास
फैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाए बाहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि-दिशि लघु-लघु हाथ !
3. पथ में साँझ
पथ में साँझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना ।
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना ।
याद है : चूड़ी की टूक से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना ?
4. उनये उनये भादरे
उनये उनये भादरे
बरखा की जल चादरें
फूल दीप से जले
कि झरती पुरवैया सी याद रे
मन कुयें के कोहरे सा रवि डूबे के बाद रे।
भादरे।
उठे बगूले घास में
चढ़ता रंग बतास में
हरी हो रही धूप
नशे-सी चढ़ती झुके अकास में
तिरती हैं परछाइयाँ सीने के भींगे चास में
घास में।
5. बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा
गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह ।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से—
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह
कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा ! बड़े भाग से तुम को
मानव-जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर-पथ के दावी !
तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा ।
6. दोस्त, देखते हो जो तुम
दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है ।
यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है ।
एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी ।
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पी
मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर ।
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर
मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे ।
7. कभी जब याद आ जाते
कभी जब याद आ जाते
नयन को घेर लेते घन,
स्वयं में रह न पाता मन
लहर से मूक अधरों पर
व्यथा बनती मधुर सिहरन ।
न दुःख मिलता, न सुख मिलता
न जाने प्रान क्या पाते ।
तुम्हारा प्यार बन सावन,
बरसता याद के रसकन
कि पाकर मोतियों का धन
उमड़ पड़ते नयन निर्धन ।
विरह की घाटियों में भी
मिलन के मेघ मंडराते ।
झुका-सा प्रान का अम्बर,
स्वयं ही सिन्धु बन-बनकर
ह्रदय की रिक्तता भरता
उठा शत कल्पना जलधर ।
ह्रदय-सर रिक्त रह जाता
नयन घट किन्तु भर आते ।
कभी जब याद आ जाते ।
8. नभ के नीले सूनेपन में
नभ के नीले सूनेपन में
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन !
बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन !
घर के बर्तन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन !
9. फागुनी शाम
फागुनी शाम अंगूरी उजास
बतास में जंगली गंध का डूबना
ऐंठती पीर में
दूर, बराह-से
जंगलों के सुनसान का कुंथना ।
बेघर बेपरवाह
दो राहियों का
नत शीश
न देखना, न पूछना ।
शाल की पँक्तियों वाली
निचाट-सी राह में
घूमना घूमना घूमना ।
10. दिन बीता, पर नहीं बीतती साँझ
दिन बीता,
पर नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
नहीं बीतती,
नहीं बीतती,
नहीं बीतती साँझ
ढलता-ढलता दिन
दृग की कोरों से ढुलक न पाया
मुक्त कुन्तले !
व्योम मौन मुझ पर तुम-सा ही छाया
मन में निशि है
किन्तु नयन से
नहीं बीतती साँझ
11. हरित फौवारों सरीखे धान
हरित फौवारों सरीखे धान
हाशिये-सी विंध्य-मालाएँ
नम्र कन्धों पर झुकीं तुम प्राण
सप्तवर्णी केश फैलाए
जोत का जल पोंछती-सी छाँह
धूप में रह-रहकर उभर आए
स्वप्न के चिथड़े नयन-तल आह
इस तरह क्यों पोंछते जाएँ ?
12. पकते गुड़ की गरम गन्ध से
पकते गुड़ की गरम गन्ध से सहसा आया
मीठा झोंका। आह, हो गई कैसी दुनिया।
"सिकमी पर दस गुना।" सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा।
चूँ - चूँ बस कोल्हू की, लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, "खैर, यह पूस तो चला... "
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका।
13. कोजागर
कोजागर
दीठियों की डोर-खिंचा
(उगते से) इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा ।
गोरोचनी जोन्ह पिघली-सी
बालुका का तट, आह, चन्द्रकान्तमणि-सा पसीज-सा रहा ।
साथ हम
नख से विलेखते अदेखते से
मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा ।
अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास
टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा ।
नीर हटता-सा
क्लिन्न तीर फटता-सा गिरा
किन्तु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा ।
14. धुन्धुवाता अलाव
धुन्धुवाता अलाव, चौतरफ़ा मोढ़ा मचिया
पड़े गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास : 'अब मटर भी गई'
देखा सिर पर नीम फाँक में से कचपकिया
डबडबा गई-सी, कँपती पत्तियाँ टहनियाँ
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया ।
पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया
मीठा झोंका। 'आह, हो गई कैसी दुनिया !
सिकमी पर दस गुना।' सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप गुना, किसी ने कुछ नहीं कहा ।
चूँ-चूँ बस कोल्हू की; लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, ख़ैर, यह पूस तो चला...'
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भोंका।
15. विजन गिरिपथ पर चटखती
विजन गिरीपथ पर चटखती पत्तियों का लास
हृदय में निर्जल नदी के पत्थरों का हास
'लौट आ, घर लौट' गेही की कहीं आवाज़
भींगते से वस्त्र शायद छू गया वातास ।
16. पारदर्शी नील जल में
पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल
चाँद था, हम थे, हिला तुमने दिया भर ताल
क्या पता था, किन्तु, प्यासे को मिलेंगे आज
दूर ओठों से, दृगों में संपुटित दो नाल ।
नामवर सिंह
(28 जुलाई 1927 -- 19 फ़रवरी 2019)