केदार नाथ सिंह की कविताएं
हम पुरबिहा
पहाड़न में हम
अपना गाँव के टीला
चिरइन में कबूतर
भाखा में पूरबी
दसो दिसा में हम उत्तर
गाछन में बबूल
अपना समय के बजट में
दुखात एगो भूल
नदियन में चंबल
सर्दियन में
एगो बुढ़िया के कंबल
ए घरी एइजा
ऐन एही घरी
बगदाद में जवना करेजा के
चीर गइल गोली
उहँवो हम बानीं
हर गिरल खून के
अपना अँगौछा से पोंछत
इहाँ-उहाँ----जहँवा हम
तहँवा हम----ऊहे पुरबिहा
आज सुबह के अखबार में
आज सुबह के अख़बार में
एक छोटी-सी ख़बर थी
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !
किसी ने उसे देखा नहीं
अँधेरे में सुनी नहीं किसी ने
उसके चलने की आवाज़
गिरी नहीं थी किसी भी सड़क पर
ख़ून की छोटी-सी एक बूँद भी
पर सबको विश्वास है
कि सुबह के अख़बार मनें छपी हुई ख़बर
ग़लत नहीं हो सकती
कि ज़रूर-ज़रूर पिछली रात शहर में
आया था बाघ
सचाई यह है कि हम शक नहीं कर सकते
बाघ के आने पर
मौसम जैसा है
और हवा जैसी बह रही है
उसमें कभी भी और कहीं भी
आ सकता है बाघ
पर सवाल यह है
कि आख़िर इतने दिनों बाद
इस इतने बड़े शहर में
क्यों आया था बाघ ?
क्या वह भूखा था ?
बीमार था ?
क्या शहर के बारे में
बदल गए हैं उसके विचार ?
यह कितना अजीब है
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा
और जो चीज़ जहाँ थी
उसे वहीं छोड़कर
चुप और विरक्त
चला गया बहार !
सुबह की धूप में
अपनी-अपनी चौखट पर
सब चुप हैं
पर मैं सुन रहा हूँ
कि सब बोल रहे हैं
पैरों से पूछ रहे हैं जूते
गरदन से पूछ रहे हैं बाल
नखों से पूछ रहे हैं कंधे
बदन से पूछ रही है खाल
कि कब आएगा
फिर कब आएगा बाघ ?
हाथ
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए
यह पृथ्वी रहेगी
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
जाऊंगा कहाँ
जाऊंगा कहाँ
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में
छिपा रहूँगा मैं
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊंची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊंगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
जाऊंगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग...
जाना
.
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है
चिट्ठी
कल गाँव से
एक चिट्ठी आई
बहुत दिनों बाद
शायद नदी ने भेजी थी
न दिन
न तारीख़
न सिरनामा
बस ऊपर कोने में
एक बूँद की तरह
टंका था
छोटा-सा प्यारा-सा
गाँव का नाम --
'चकिया'
शहर के
उस सबसे व्यस्त चौराहे पर
सबसे छिपा कर
मैं देर तक पढ़ता रहा
उस ख़ाली-ख़ाली चिट्ठी को
और सारी चिट्ठी में
गूँजता रहा
चीख़ता रहा
बस एक ही शब्द
चकिया ! चकिया !
मुझे याद आई
एक और भी चिट्ठी
जो बरसों पहले
मैंने दिल्ली में छोड़ी थी
पर आज तक
पहुँची नहीं चकिया
स्त्रियां जब चली जाती हैं
स्त्रियां
अक्सर कहीं नहीं जातीं
साथ रहती हैं
पास रहती हैं
जब भी जाती हैं कहीं
तो आधी ही जाती हैं
शेष घर मे ही रहती हैं
लौटते ही
पूर्ण कर देती हैं घर
पूर्ण कर देती हैं हवा, माहौल, आसपड़ोस
स्त्रियां जब भी जाती हैं
लौट लौट आती हैं
लौट आती स्त्रियां बेहद सुखद लगती हैं
सुंदर दिखती हैं
प्रिय लगती हैं
स्त्रियां
जब चली जाती हैं दूर
जब लौट नहीं पातीं
घर के प्रत्येक कोने में तब
चुप्पी होती है
बर्तन बाल्टियां बिस्तर चादर नहाते नहीं
मकड़ियां छतों पर लटकती ऊंघती हैं
कान में मच्छर बजबजाते हैं
देहरी हर आने वालों के कदम सूंघती है
स्त्रियां जब चली जाती हैं
ना लौटने के लिए
रसोई टुकुर टुकुर देखती है
फ्रिज में पड़ा दूध मक्खन घी फल सब्जियां एक दूसरे से बतियाते नहीं
वाशिंग मशीन में ठूँस कर रख दिये गए कपड़े
गर्दन निकालते हैं बाहर
और फिर खुद ही दुबक-सिमट जाते हैँ मशीन के भीतर
स्त्रियां जब चली जाती हैं
कि जाना ही सत्य है
तब ही बोध होता है
कि स्त्री कौन होती है
कि जरूरी क्यों होता है
घर मे स्त्री का बने रहना