श्रद्धांजलि : मुशीर उल हसन हितेन्द्र पटेल

 


 


श्रद्धांजलि : मुशीर उल हसन


 


हितेन्द्र पटेल
 


मुशीरउल हसन (15 अगस्त 1949 -10 दिसंबर 2018) आधुनिक भारत के एक सुप्रतिष्ठित इतिहासकार थे। उनकी यह ख्याति मुख्य रूप से भारत विभाजन, सांप्रदायिकता और दक्षिण एशिया में इस्लाम के क्षेत्र में काम करने के कारण है। उनका नाम राष्ट्रीय समाचारों में उस समय पहली बार आया जब उन्होने सलमान रुश्दी की पुस्तक को बैन करने के निर्णय पर उनके वक्तव्यों विरोध का मुस्लिम ग्रुपों के द्वारा हुआ और उनके वक्तव्यों को इस रूप में पेश किया गया मानो वे इस्लाम विरोधी लोगों का समर्थन कर रहे हों। बाद में वे अपने शोध के साथ ही प्रशासक के रूप में भी बहुत चर्चा के केंद्र में रहे और पहले प्रो वी सी और फिर वी सी के रूप में जामिया मिलिया इसलामिया (विश्वविद्यालय) को विस्तार देने के लिए उनकी प्रशंसा हुई । 2014 में मेवात की यात्रा के दौरान हुई सड़क दुर्घटना उनके लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई और अंततः  2018 में वे चल बसे। उनके गुजरने के बाद उनके प्रशंसकों ने उन्हें आधुनिक भारत के सबसे बड़े इतिहासकारों में एक माना, लेकिन उनके आलोचकों ने उन्हें श्रद्धांजलि देना भी जरूरी नहीं समझा। अगर एक नजदीकी की बात सही है तो जिस विश्वविद्यालय में एक शिक्षक और प्रशासक के रूप में वे लगभग चार दशकों तक रहे उस विश्वविद्यालय ने उनकी कब्र पर  लिए फूल भेजकर उनके प्रति आदर प्रकट करना भी जरूरी नहीं समझा। 



    मुशीरउल हसन के इस विवादास्पद लेकिन महत्त्वपूर्ण जीवन के बारे में दो तरह के मत हैं। इसमें संदेह नहीं कि वे बहुत मेहनत के साथ चार दशकों तक गंभीर शोध कार्य किया था और विधिवत उसका प्रकाशन किया था। एक इतिहासकार के रूप में उनके कार्यों की अनदेखी असंभव है, लेकिन कई लोगों का मानना है कि वे शक्तिशाली इसलिए बने क्योंकि उनको कांग्रेसी सरकार का समर्थन प्राप्त था। अस्सी और नव्बे के दशक में केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के कृपा-पात्र होने के कारण उन्होने जो चाहा वे करने में सफल हुए । जामिया मिलिया उनकी मिल्कियत हो गई थी, और जितनी मर्जी उतने सेंटर बनाने में सफल रहे, जिसको चाहा नौकरी दी और जिस तरह चाहा यूनिवर्सिटी की चलाया। लेकिन यह अतिरेकी वक्तव्य ही माना जा सकता है। उन्होने इस यूनिवर्सिटी को उस मक़ाम पर पहुंचाया जिसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए।  मुशीर उल हसन 1992 में प्रो वी सी बने और 1996 तक इस पद पर रहे। 2004 से 2009 तक वे वी सी रहे और इस दौरान उन्होने यूनिवर्सिटी को देश की बड़ी यूनिवर्सिटी के रूप में दर्जा दिलाया। वी सी बनने के बाद उन्होने यूनिवर्सिटी की बाहरी दीवार को तुड़वा दिया। शुरू में लोगों ने इसकी आलोचना की लेकिन बाद में लोगों को लगा कि ऐसा करने से कैंपस की खूबसूरती बाहर से दिखने लगी और भद्दी दीवार को तोड़कर उन्होने अच्छा काम किया । यूनिवर्सिटी में नियुक्तियों को लेकर भी उनकी प्राशनसा करनी पड़ेगी। शाहिद अमीन से लेकर वहाँ आए और कई नौजवानों को उनके कारण यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का मौका मिला। कई ऐसे लोगों को चुना गया जो योग्य होते हुए भी कहीं चुने नहीं जा रहे थे।  2000 से 2010 तक वे एकेडमी ऑफ थर्ड वर्ल्ड स्टडीज़ (जामिया मिलिया) के निदेशक भी रहे। 2010 में वे नेशनल आर्काइव्स के डाइरेक्टर जेनेरल बनाए गए। उन्हें देश और विदेश में बहुत सारे पुरस्कार भी मिले। 2002 में वे इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के सभापति चुने गए। देश –विदेश में उनको बहुत सारे पुरस्कार भी मिले, जिसमें पद्म-श्री भी शामिल है। कई नज़दीकियों को लगता था कि वे उपराष्ट्रपति बन सकते हैं, पर ऐसा नहीं हुआ। 



    मुशीर हसन की पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उन्हें एक तरह का खुलापन दिया। उनके दादा जी बाराबंकी जिले के थे। मुशीर के पिता मोहिब्बुल हसन जाने माने शिक्षक थे जिनहोने देश के विभिन्न हिस्सों में शिक्षण कार्य किया था । वे लखनऊ के क्रिश्चियन कॉलेज में पढे थे और कोलकाता (उस समय कलकत्ता) विश्वविद्यालय के लेक्चरर बने । उनकी  हैदर अली, टीपू सुल्तान, बाबर और कश्मीर पर लिखी किताबों को बहुत शोहरत हासिल हुई।  मुशीर का जन्म बिलासपुर में हुआ और उनके शुरुआती सात वर्ष  कोलकाता के रिपन स्ट्रीट इलाके में बीते। बाद में जब मोहिब्बुल हसन अलीगढ़ में एशोशिएट प्रोफेसर हुए तो फिर मुशीर वहीं पढ़ने लगे । वे गणित में बहुत अच्छे थे और स्कूल के इम्तहान में उन्हें 50 में 49 नंबर मिले। पर उन्होने इतिहास को ही उच्च शिक्षा के लिए चुना । वे मानते थे कि  अलीगढ़ ने ही उन्हें इतिहासकार बनने की प्रेरणा दी। उनके घर में बहुत सारी किताबें होती थी और उनमें से अधिकतर इतिहास की किताबें होती थीं। उस जमाने के अलीगढ़ के बारे में मुशीर ने कहा है कि उस समय बहुत सारे बड़े विद्वान यूनिवर्सिटी में थे और उनसे बड़ी मदद मिली। इतिहासकार मोहम्मद सज्जाद ने उल्लेख किया है की जिस स्कूल में मुशीर पढ़ते थे उसके प्रिंसिपल सैयद मोहम्मद टोंकी के कारण उनकी दिलचस्पी  इतिहास के साथ साथ  खेल-कूद (विशेषकर बैडमिंटन और टेबुल टेनिस में ) और अङ्ग्रेज़ी नाटकों में बढी।  एक बार  हबीब तनवीर और अल्का जी जैसी हस्तियों के सामने उन्हें दिल्ली में एक प्रतियोगिता में पाँचवाँ स्थान भी मिला जो कि एक उपलब्धि थी। 



    उनके पिता अलीगढ़ छोडकर जामिया मिलिया चले गए और उनके साथ वे दिल्ली चले गए।  जब उनकी आयु 20 साल भी नहीं थी उन्हें पहले पहले रामलाल आनंद कॉलेज और फिर रामजस कॉलेज में पढ़ाने के मौका मिला। वे इस कॉलेज के इतिहास के पहले मुसलमान शिक्षक थे, पर उन्हें अपने चार वर्ष के अध्यापन के दौरान अपने मुसलमान होने का एहसास नहीं हुआ। अलीगढ़ से दिल्ली आने के बाद उन्हें बड़े शहर में आकर कुछ अजीब सा लगा। 2014 में अपने एक इंटरव्यू में उन्होने कहा था कि छोटे शहर से बड़े शहर में आने की बहुत सारी दिक्कतें होती हैं और उन्हें भी हुई। दिल्ली आकर उन्हें लगा कि उनकी अङ्ग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं है जितनी यहाँ दिल्ली के लोगों की है। उन्होने मेहनत की और इस ‘कमी’ को दूर किया। चार साल पढ़ाने के बाद उन्हें कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पी एच डी करने का मौका मिला और वे वहाँ चले गए। वहाँ जाकर उन्हें फिर से वैसा ही लगा जैसा दिल्ली जाकर उन्हें लगा था। उस समय कई नोबल पुरस्कार विजेता यूनिवर्सिटी में पढाते थे जिनको मुशीर नजदीक से देखते थे। इस तरह के अनुभवों ने उन्हें एक उदार और मेहनती अकादमिक बनाया। साढ़े तीन वर्षों में 1977 में उन्होने अपनी पी एच डी पूरी की।  उन्होने अपना शोधकार्य अनिल सील और जॉन गलाघर (जिन्हें ‘साम्राज्यवादी’ कैंब्रिज हिस्ट्री के प्रतिष्ठाता के रूप में देखा जाता है) के शोध निर्देशन में किया था। 



    कैंब्रिज से लौटने के बाद वे फिर से दिल्ली में पढाने लगे। पर कुछ ही दिनों में जामिया के कुलपति ए जे किदवई की निगाह में वे आ गए । किदवई उन कुलपतियों में थे जो प्रतिभाशाली शिक्षकों को अपनी यूनिवर्सिटी में लाने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होने मुशीर उल हसन को जामिया आने का आमंत्रण दिया। जल्द ही वे रीडर और फिर प्रोफेसर हो गए। एक बार वे उस विश्वविद्यालय में जुडने के बाद उससे अलग होने की सोच नहीं पाए। उन दिनों में भी जब उनके ऊपर मुस्लिम समुदाय के भीतर से ही जबर्दस्त हमले हो रहे थे क्योंकि उन्होने रुश्दी की किताब को बैन करने को गलत माना था और यहाँ तक कहा था कि यह बहुत खराब किताब है और इसे जलाकर लोग उसकी पब्लिसिटी कर रहे हैं। मुशीर उल हसन उस समय इस कदर विरोध का शिकार हुए कि दो तीन वर्षों तक जामिया के कैम्पस में घुस नहीं पाए। उस समय भी वे किसी दूसरी जगह जाने की नहीं सोच पाए। 



    शोध कार्य का क्षेत्र था -1885 से 1930 के बीच राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बीच के अंतर्संपर्क की पड़ताल। प्राथमिक स्रोतों पर आधारित उनके शोध-ग्रन्थों में इस पुस्तक का विशेष महत्त्व है। वे उत्तर प्रदेश की राजनीति के इतिहास के साथ साथ सांस्कृतिक इतिहास के प्रति भी बाद में बहुत गहराई से जुड़े रहे और कई पुस्तकों का सृजन किया। उनके ऐतिहासिक लेखन पर एक सुंदर टिप्पणी करते हुए सतीश सब्बरवाल ने लिखा है कि मुशीर इस्लाम की उदार धारा के पक्षधर इतिहासकार थे। सब्बरवाल के अनुसार इस्लाम के भीतर दो तरह की धाराएँ रही हैं – एक खुलेपन के साथ दुनिया से जुड़ती थी और गैर इस्लामिक सांस्कृतिक जगत से तादात्म बिठाकर चलती थे और दूसरी जो आठवीं से दसवीं शताब्दी में मुख्यतः अब्बासाइड साम्राज्य के शासन काल में बनी धार्मिक वर्ग (उलेमा ) के हिसाब से संकीर्ण दृष्टि वाली थी।ये दोनों धाराएँ इस्लामी समाज में हमेशा से रही हैं और कभी एक दूसरे का विरोध और कभी सहयोग करती रही हैं।  मुशीर ने पहली धारा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखा और इस देश में खिलाफत और भारत-विभाजन के बीच के समय पर  अध्ययन करते हुए भारतीय इस्लाम के खुलेपन की ऐतिहासिक व्याख्या के लिए  अठारहवीं शताब्दी के  अबू तालेब खान के इतिहास तक की यात्रा की ।  वे एम ए में मध्यकालीन इतिहास के अध्येता थे, लेकिन उसके बाद उनको लगा कि विचारों के इतिहास को ठीक से लिखने के लिए आधुनिक काल पर लिखना उचित होगा।  इन पुस्तकों में कस्बे के पतन (जिसमें भारतीय समाज का बहुलतावादी स्वरूप ऐतिहासिक रूप से उपस्थित रहा था), मुस्लिम बौद्धिक इतिहास, आज़ाद भारत के मुसलमान आदि तो थे ही, मौलाना आज़ाद , एम ए अंसारी जैसे बड़े नेताओं पर काम भी था जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उसके कारण राष्ट्र्वादी मुस्लिम नेताओं के बारे में बहुत सारे भुला दी गई बातों की ओर लोगों का ध्यान गया। तीन –चार अन्य पुस्तकों में उनके विविध दिलचस्पियों का पता चलता है। ‘विट एंड ह्यूमर इन कोलोनियल नॉर्थ इंडिया’ (2007) , ‘द नेहरुज’(2006), ‘मुस्लिम इंटेल्लेक्चुयल्स इन द नाइन्तींथ सेंचुरी दिल्ली (2005) , ‘जॉन कंपनी टू द रिपब्लिक’ (2001) आदि पुस्तकें उनके इतिहास के विविध पक्ष में दिलचस्पी के प्रमाण हैं।



    मुशीर उल हसन का मत था कि खिलाफत और भारत विभाजन के बीच के इतिहास में कई ऐसे मौके आए जब समझौते की शक्ल बनी, पर दोनों समुदायों के बीच एक राष्ट्र के रूप में साथ रहने की सहमति बन न सकी क्योंकि इसकी सफलता के लिए एक पक्ष का दूसरे पक्ष पर विश्वास का होना जरूरी था, जो पैदा नहीं किया जा सका। 
    एक बात उनके बारे में कही जाती है कि उन्होने बहुत अधिक लिखा लेकिन कभी भी अपने स्तर को गिरने नहीं दिया। अभिलेखागारों के स्रोतों के प्रति उनकी दिलचस्पी अंत तक बनी रही। वे इतिहास लेखन को बहुत गंभीर विषय मानते थे और तथ्यों के बारे में शुरू से अंत तक बहुत सचेत बने रहे। इतिहासकार शहीद अमीन, जो उनसे एक साल छोटे थे, उन्हें शुरुआती दिनों से ही जानते रहे थे, ने लिखा है कि उन्हें उर्दू स्रोतों की बहुत जानकारी थी और उसका उन्होने बहुत ही अच्छा प्रयोग अपने इतिहास लेखन में किया है। अस्सी के दशक से जीवन के अंत तक वे अकादमिक जगत में बहुत चर्चित परिचित नाम बने रहे । गंभीर शोध के अलावा वे नियमित अखबारों और पत्रिकाओं में भी लिखते रहे। 



     रामचंद्र गुहा ने एक दिलचस्प बात उनके बारे में कही है कि जब वे उनसे मिले थे तो उनके बारे में किसी ने कहा था कि वे तो लिबरल हैं ! उन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जहां गुहा के मित्र पढ़ते थे और कोलकाता, जहां गुहा पढ़ते थे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्क्सवादी होते थे और लिबरल कहना कहीं से भी बहुत सकारात्मक नहीं माना जाता था। यह दिक्कत मुशीर उल हसन को हुई थी। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे शास्त्रीय ढंग के लिबरल  (क्लासिकल लिबरल) थे। पर कुछ नजदीकी मित्रों ने लिखा है कि उन्होने शुरुआत नेहरुवियन के रूप में की थी और बाद में वे गांधी के नज़दीक आए । एक अन्य मित्र का मानना है कि वे पुराने ढंग के कांग्रेसी थे।  वे उस युग के कांग्रेसी थे जिस समय गांधी और नेहरू के विचारों का ज़ोर था। बाद के दिनों में कांग्रेस में आई गिरावट से वे खासे परेशान थे। एक अन्य मत है कि वे लेफ्ट के प्रति बहुत सहानुभूतिशील हो गए थे लेकिन बाद में उसके प्रति बहुत आलोचनात्मक हो गए। इन बातों के आधार पर यह राय बनायी जा सकती है कि मुशीर उल हसन किसी विचारधारा के प्रभाव में सीधे सीधे नहीं रहे और स्वतंत्र होकर अपनी इतिहास लेखन करते रहे।  



    उनके इतिहास लेखन में शुरू से एक बात थी कि वे नेशन-बिल्डिंग के प्रोजेक्ट के हिसाब से एक लिबरल इतिहासकार के रूप में अपने इतिहास लेखन में लगे थे। वे साहित्य में दिलचस्पी रखते थे (खासकर उर्दू शायरी और उपन्यासों में ), आमलोगों के जीवन से जुड़े थे और हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि इस देश में अंग्रेजों ने इतिहास लेखन के आधार पर बहुत बड़ा मानसिक विभाजन कर रखा है। वे इस बात को अंत तक दुहराते रहे कि अंग्रेजों ने इस देश में पहली बार इतिहास लिखा और उसके कारण इस देश के लोगों के मन  में यह धारणा बैठ गयी कि पहले हिंदुओं का शासन था, फिर मुसलमानों का हुआ और फिर यहाँ अंग्रेज़ आए। वे इस बात को भी ध्यान में रखते थे कि आज़ादी की जंग के दौरान भी देश के इतिहास को देखने की दृष्टि ठीक नहीं हो पायी।  हिन्दू –मुसलमान की एकता के लिए प्रयत्न करते हुए भी गांधी-नेहरू जैसे नेता इस गलती को ठीक नहीं कर पाये। दुर्घटना से पहले सैयद मोहम्मद इरफान के दिए गए इंटरव्यू में मुशीर ने 2014 में यह विश्वास व्यक्त किया था कि उन्हे इस बात का इत्मीनान है कि बीस पच्चीस सालों में उन्होने जो इतिहासकार के रूप में कहना चाहा उसे वह कह पाए । वे कहते थे कि ज्यों ज्यों नैशनल बिल्डिंग का प्रोजेक्ट आगे बढ़ेगा हिन्दुत्व और इस्लामिस्ट शक्तियों की पकड़ कमजोर होती जाएगी ।रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि दुर्घटना के बाद वे इस तरह अस्वस्थ रहे कि वे यह शायद नहीं जान पाए कि उनके जीवन के अंतिम चार सालों में कैसे उनके उत्तर भारत में दूसरी शक्तियों ने राजनीति शक्ति को इतना  बढ़ा दिया है कि स्थिति उनके हिसाब से बहुत खराब हो गई है। अस्वस्थता ने उनको अपने इस विश्वास को बिखरते देखने के दुख से बचा लिया।



(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक, 2019)