देश-विभाजन पर कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कुछ कविताएं
अज्ञेय
मानव मन की आंख
कोटरों से गिलगिली घृणा यह झाँकती है।
मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़-दृष्टि
जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं
और तमजात सब जन्तुओं से
मानव का वैर है क्यों कि वह सुत है
प्रकाश का-यदि इन में न होता यह स्थिर तप्त स्पन्दन तो!
मानव से मानव की मिलती है आँख पर
कोटरों से गिलगिली घृणा झाँक देती है!
इलाहाबाद स्टेशन, 12 अक्टूबर, 1947
मिरगी पड़ी
अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है।
जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी
छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले-
कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम
सहसा यों मूर्छा उसे आती है।
पुतली की जोत बुझ जाती है।
कहाँ गयी चेतना?
अरे ये तो मिरगी का रोगी है!
मिरगी का दौरा है।
चेतना स्तिमित है।
किन्तु कहीं भी तो दीखती नहीं शिथिलता-
तनी नसें, कसी मुट्ठी, भिंचे दाँत, ऐंठी मांस-पेशियाँ-
वासना स्थगित होगी किन्तु झाग झर रहा मुँह से!
आज जाने किस हिंस्र डर ने
देश को बेख़बरी में डँस लिया!
संस्कृति की चेतना मुरझा गयी!
मिरगी का दौरा पड़ा, इच्छाशक्ति बुझ गयी!
जीवन हुआ है रुद्ध मूच्र्छना की कारा में-
गति है तो ऐंठन है, शोथ है,
मुक्ति-लब्ध राष्ट्र की जो देह होती-लोथ है-
ओठ खिंचे, भिंचे दाँतों में से पूय झाग लगे झरने!
सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया!
इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947
हमारा रक्त
यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त
वह उधर रहा उतना ही लाल
तुम्हारी एक बहिन का रक्त!
बह गया, मिलीं दोनों धारा
जा कर मिट्टी में हुईं एक
पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं
न अंकुर उस में फूटा।
यह दूषित दान नहीं लेती-
क्योंकि घृणा के तीखे विष से आज हो गया है
अशक्त निस्तेज और निर्वीर्य हमारा रक्त!
काशी, 5 नवम्बर, 1947