विष्णु नागर का लेख 'दिल्ली की सबसे बड़ी देन इसका परदेसीपन है'

नवभारत टाइम्स' के सहायक संपादक और 'दिनमान साप्ताहिक' के संपादक रहे रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ में हुआ था. वहीं से इन्होंने एम.ए. किया और उसके बाद गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं के माध्यम से साहित्य सेवा में लग गए. रघुवीर सहाय के मुख्य काव्य-संग्रहों में शामिल हैं: 'आत्महत्या के विरुद्ध', 'हंसो हंसो जल्दी हंसो', 'सीढ़ियों पर धूप में', 'लोग भूल गए हैं, 'कुछ पते कुछ चिट्ठियां' आदि. रघुवीर सहाय अपनी कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं' के लिए 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी जीवनी का एक छोटा अंश, जिसे विष्णु नागर ने लिखा है. किताब असहमति में उठा एक हाथ : रघुवीर सहाय की जीवनी से


दिल्ली की सबसे बड़ी देन इसका 'परदेसीपन' है


 


विष्णु नागर



'दिल्ली मेरा देस नहीं है और दिल्ली किसी का देस नहीं हो सकती. उसकी अपनी संस्कृति नहीं है. यहां के निवासियों के सामाजिक आचरण को कभी इतना स्थिर होने का अवसर मिल भी नहीं सकता कि वह एक संस्कृति का रूप ग्रहण करे. अधिक से अधिक वह सभ्यता का बल्कि उसके अनुकरणों का एक केन्द्र हो सकती है. सो वह है और अपनी तमाम स्मृतियों के साथ है. मैं 1951 की गर्मियों में 'प्रतीक' का सहायक संपादक होकर दिल्ली आया था, तब से इस शहर के कुछ हिस्से मेरी निगाह में उतने ही खूबसूरत हैं, यहां मौसम का आना-जाना उतना ही प्रकट है और धूप और पेड़ और सूखे पत्ते उतने ही पवित्र हैं. तमाम इलाक़ों को जहां आज बड़ी-बड़ी सड़कें या इमारतें हैं, मैंने नंगा देखा है और उसकी याद की भी एक गुदगुदी है. जिन्दगी में जो दो काम किए हैं- अख़बार नवीसी और कविता, उन दोनों की सबसे अच्छी स्मृतियां भी यहीं की हैं और मुफ़लिसी की मस्तियां और पस्तियां भी परन्तु ये दिल्ली की सबसे बड़ी देन नहीं है. सबसे बड़ी देन तो एक परदेसी है : एक अजब तरह का एकान्त, जिसमें जब चाहो तब भीतर चले जाओ-चाहे कितनी ही भीड़ में क्यों न हो-और जिसमें से जब चाहो जरा देर के लिए बाहर आ जाओ. कोई देखेगा नहीं.' –(रघुवीर सहाय रचनावली से)


रघुवीर सहाय दिल्ली नामक अपने इस 'परदेस' में मई, 1951 में जब आए थे, तब वह क़रीब साढ़े इक्कीस साल के थे. यहां  वह 1990 के अन्त तक यानी जीवनपर्यन्त रहे-अगर 'कल्पना' में काम के दौरान हैदराबाद में रहने के कुछ महीनों को छोड़ दें तो. चालीस से कुछ अधिक वर्ष उनके यहां बीते.


रघुवीर सहाय पहली बार नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हाथ में एक बक्सा लिए उतरे, तो लखनऊ जैसे नफासत पसन्द शहर से आये इस नवयुवक को यहां उतरते ही सबसे पहले और सबसे ज्यादा अखरा था यहां के लोगों का अक्खड़पन. उन्होंने वात्स्यायन जी को अपने आने के दिन और समय की सूचना नहीं दी थी. वह तांगे से अकेले ही 14 डी-फ़िरोजशाह रोड तक पहुंच गये थे. रास्ते में वह आशंकित रहे कि अगर वात्स्यायन जी नहीं मिले, तो पता नहीं यहां ठहरने-रुकने का क्या, कैसे इन्तज़ाम होगा? उनकी यह आशंका सही साबित हुई. उस दिन वात्स्यायन जी से उनकी मुलाकात नहीं हुई.


यहां आने के क़रीब सवा साल बाद उन्होंने पुरानी 'जनसत्ता' में अपने आने के पहले और तीसरे दिन के अनुभवों के बारे में बहुत रोचक अन्दाज़ में अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'दिल्ली की झलकियाँ' में लिखा है. दिल्ली के पहले दिन के अक्खड़पन को देखने-समझने का भी बाद में उन्होंने एक तरह से आनन्द लिया. वैसे हास्य-व्यंग्य की प्रवृत्ति के बीज निश्चय ही उनमें पहले से मौजूद रहे होंगे लेकिन इसे लेखन में उतारने का कौशल उन्होंने दिल्ली आकर ही दिखाया. इसके प्रमाण उस गद्य और उन कविताओं में मिलते हैं, जो उन्होंने दिल्ली आने पर लिखीं. लखनऊ में रहते 'दूसरा सप्तक' में जो कविताएं उनकी छपी है, उसे इसका सबूत नहीं मिलता.


पुरानी 'जनसत्ता' में 1952 में 'बस तेरा इंतजार है' और 'युअर लक गुड' नामक निबन्धों और अलग से लिखे कुछ और टुकड़ों में उनकी व्यंग्यात्मक कौशल के प्रमाण मिलते हैं. इस बहाने दिल्ली में उनके आरम्भिक दिनों का कुछ-कुछ अंदाजा भी होता है. वह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचे ही थे कि एक सरदार जी ने अपनी अनुभवी निगाहों से यह परख लिया कि यह बन्दा परदेसी है और पहली बार ही दिल्ली आया है. उन सरदार जी ने वहां रघुवीर जी से कोई बात नहीं की मगर वह विशेष रुचि से इन्हें, इनके कार्यव्यापारों को देखता रहा. यहां तक कि वह जब तांगेवाले से फ़िरोज़शाह रोड चलने के बारे में भावताव कर रहे थे, तब भी वह निष्पक्ष भाव से सब देख-सुन-समझ रहा था, कहा-सुना उसने कुछ नहीं. वह शायद इस पढे लिखे नौसिखिये के व्यवहार का बारीकी से अध्ययन कर रहा था. अभी-अभी देश की राजधानी में प्रवेश करनेवाले इस युवा को आशंका हई कि हो न हो, यह ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी है मगर संयोग से तीन दिन बाद बड़े रोचक ढंग से उन सरदार जी से फिर मुलाक़ात हुई और तब 'रहस्य' खुला.


युवा रघुवीर, सिंधिया हाउस के बस स्टाप पर बस का इन्तज़ार कर रहे थे. आसपास नज़र डाली तो संयोग से वही सरदार जी यहां भी थे. इस दुर्लभ सहयोग को सरदार जी इस बार छोड़ना नहीं चाहते थे. उन्होंने हाथ के इशारे से इन्हें अपने पास बुलाया. इस लखनवी युवक को यह दिल्लीवाला अक्खड़ अन्दाज़ पसन्द तो नहीं आया, फिर भी कुछ सोचकर इस युवक ने उनके पास जाना ठीक समझा. उसने सख्ती से सरदार जी से पूछा- 'क्या है?' सरदार जी उस युवक की इस सख्ती से कतई विचलित नहीं हुए. होते भी क्यों, दिल्ली उनकी अपनी थी और यह लड़का नयानवेला था. इस निमंत्रण को स्वीकार कर सरदार जी से संक्षिप्त वार्तालाप करने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि उनका यह भ्रम दूर हो गया कि यह ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी है. पता चला कि वह तो ज्योतिषी जी हैं. लखनवी युवक से उस समय सरदार जी ने जो कुछ कहा होगा, उसकी शुद्धतम देसी, ठेठ अंग्रेज़ी के अन्दाज़ को यथावत रखने की कोशिश रघुवीर जी ने की है-'मिस्टर प्लीज, योर लक गुड. आयी टेल…आयी टेल, यू कम फ्रॉम डिस्टेंस. डेल्ही नाट गुड टू यू. यू गो बैक, मेन ट्राइंग हार्म यू. यू नॉट नो. बाल्ड हेड, बिग मैन.'


सरदार जी उसके बाद महज़ एक रुपये चार आने में उनकी प्रेमिका का नाम-पता तक प्रकट करने को राजी हो गये, जो कि थी ही नहीं. सरदार जी ने सोचा होगा कि यह आधुनिक किस्म का युवक है तो इसकी प्रेमिका भी ज़रूर होगी और उसका नाम कोई एकदम अपरिचित ज्योतिष विद्या का जानकार जानता है, इससे यह नयी-नयी आयी मछली जाल में अवश्य फंस जायेगी. संयोग या दुर्योग कहें, इस समय तक उस युवक का ऐसा कोई चक्कर चला नहीं था, ऐसा दावा हमारा नहीं, उस युवक का ही है, जो सरदार जी के सामने उस समय था. उस सरदार से किसी तरह बचे कि यहां से कहीं और चलें वरना यह सरदार सिर खाना नहीं छोड़ेगा. अगले नुक्कड़ पर एक और सरदार जी ने उनका रास्ता रोक लिया, वह भी ज्योतिषी महाराज निकले. अन्दाज उनका भी वही फिक्स था- 'मिस्टर प्लीज लिसन' वगैरह-वगैरह. इस युवक ने समझा कि यह वही सरदार जी हैं और उनका पीछा करते-करते यहां पहुंच गये हैं मगर वह दूसरे ज्योतिषी जी थे. उन्होंने सड़क पार करने का इंतज़ार कर रहे इस युवक के सामने फिर वही चारा फेंका. फटाफट मुफ़्त यह भी बता दिया कि उस युवक की 'प्रेमिका' का नाम ' म' से शुरू होता है. इससे अधिक बताने की उनकी फीस सवा रुपये से भी कम थी. इससे भी बचकर वह निकल गये. व्यंग्यात्मक लहजे में रघुवीर जी लिखते हैं-


'हमें विश्वास है कि यदि हम इसके बाद असावधानी के कारण ऐसे ही किसी स्थिति में फिर से पड़ गये होते तो वह मुफ़्त में भी सब बताने को राजी हो जाता.'


इसके क़रीब एक महीने बाद उन्होंने फिर एक बहुत दिलचस्प प्रसंग उसी 'जनसत्ता' में उन्हीं दिनों के बारे में लिखा है. उन दिनों की दिल्ली की लोकल बसों को वैसे तो कायदे से आना चाहिए था हर दस मिनट के बाद मगर बसें शाही थीं, ड्राइवर-कंडक्टर भी शाही रहे होंगे, इसलिए आती थीं-भाग्य भरोसे और स्वेच्छा से. घण्टे-घण्टे भर बाद या उसके भी बाद. यह प्रसंग इतना रोचक है कि यकायक हमारे परिचित लेखक रघुवीर सहाय में हरिशंकर परसाई की आत्मा उतर आती लगती है. उस समय उनकी लेखनी से निकले और कई प्रसंगों में भी यह भाव मुखर है. जैसे 'फुलके' का अर्थ हम-आप कुछ और जानते होंगे मगर उस समय तंदूर में सिंकी रोटियों को भी दिल्ली में 'फुलके' कहा जाता था. वह लिखते हैं- 'भई हम तो फुलके उनको कहते हैं, जो हथेली के बराबर होते हैं और बताशे की तरह फूले हुए थाली में आते हैं. खैर स्वाद चाहते हैं तो वहीं सड़क के किनारे छोले वाले भी मिल जायेगा. दो आने में कलेजा तक न चरपरा जाय तो कहना! मसाले के दाम हैं- मटर तो घाटे में है.'


वह अपने नये-नये बने एक मित्र का हवाला देते हैं, जो अक्सर कनॉट प्लेस में उन्हें शाम को मिल जाया करते थे और मिलते ही बड़े तपाक से पूछते थे- 'कहो जी बादशाहो की हाल है?'


हम कहते- 'ज़िन्दा हैं, आप तो मजे में हैं?'


उनका उत्तर आता- 'जी ऐश कर रहे हैं, आज ओखले में (वह बीच-बीच में पत्नी को साइकिल के कैरियर पर और एक बच्चे को आगे तथा दूसरे को एक टोकरी में बैठाकर पैडल मारते हुए दूर ओखला तक हो आते थे) बड़ी रौनक थी.'


लेखक कहता है कि संक्षिप्त सी आय है इनकी, ऋण है, बच्चों की पढाई-लिखाई ढंग की हो नहीं सकती, ख़ुद तमाम चीजों के लिए मन मसोस कर रह जाते हैं किन्तु जब मिलेंगे, 'बादशाह' और 'महाराज' से कम खिताब न देंगे.'


दिल्ली में उनका आरम्भिक जीवन कुछ मस्ती, कुछ फाकामस्ती, कुछ पस्ती में बीता. कुछ- कुछ लखनऊ के मित्रों और वहां की संस्कृति की यादों में डूबा हुआ और दिल्ली की संस्कृति से किसी हद तक घबराया हुआ. सितम्बर, 1951 को कुंवर नारायण को लिखे एक पत्र में उन्होंने दिल्ली को 'अजब अधकचरे लोगों का शहर' बताया था, 'जहां न कोई कल्चर है, न जहनियत.' कक्कड़ जी को जून, 1953 में उन्होंने दिल्ली में बहुत गर्मी पड़ने की बात लिखने के साथ ही लिखा था कि यहां गर्मी भी एक 'घटना' है क्योंकि जहां कुछ और नहीं होता, वहां मौसमों का आना जाना ही काफ़ी घटना है.'


किताब का नामः  असहमति में उठा एक हाथ : रघुवीर सहाय की जीवनी


लेखकः विष्णु नागर


प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली