ग़ालिब : जन्मदिन पर एक विशेष प्रस्तुति।
*हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है*
*वो हर इक बात पे कहना यूं होता तो क्या होता*
इतनी लोकप्रियता शायद ही किसी शायर को मिली हो जितनी असदुल्ला खान ग़ालिब को मिली । वजह ढूंढें तो उनका आसानी से जुड़ जाना और कहने का खास जुदा अंदाज़ ही लगता है ।
*यूं तो हैं दुनिया मे सुख़नवर बहुत अच्छे*
*कहते हैं के , ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयाँ ओर*
अब जरा हट के ---
मिर्जा ग़ालिब मशहूर शख्सियत हैं। आगरा में जन्मे मिर्जा ने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा आगरा और दिल्ली में गुजारा। जिन दूसरे शहरों को उन्होंने तवज्जो दी उनमें लखनऊ, बनारस, कोलकाता का जिक्र किया जा सकता है। बनारस पर उनकी कलम की नेमत कुछ अधिक ही बरसी। उनकी कुल गयारह मसनवियों में से तीसरी चिराग-ए-दैर कहलाती है।यह फारसी में लिखी गई। इसका मजमून बनारस के इर्द-गिर्द घूमता है। यह मसनवी इसलिए बेहद ख़ास है कि इसने ईरान ,अफगानिस्तान और ताजुबेकिस्तान के लोगों को शहर बनारस की अहमियत और हिंदुस्तान की अजमत से वाकिफ करवाया। कुल 108 अशआरों का यह संकलन ग़ालिब की बनारस यात्रा के दौरान लिखा गया।
एक ऐसे समय में जब 'धर्म' राजनीति की धुरी बन बैठा है यह मसनवी राहते- रूह है।मसनवी में मिर्ज़ा ग़ालिब ने बनारस क़याम के दौरान अपने दिली ज़ज्बात को काव्य रूप में अभिव्यक्ति दी है।वह लगभग दो महीनों तक बनारस में रहे थे। उस दौरान वह बीमार चल रहे थे। चूँकि वह सफ़र में थे इसलिए ठहर-ठहर कर अपने सफ़र को जारी रखे हुए थे।पाँच महीने लख़नऊ प्रवास और छः महीने बांदा प्रवास के बाद उन्होंने बनारस का रुख किया था। बनारस पहुँच कर उनकी तबीयत सम्भल गयी।बीमारी से निजात पा कर वह बेहद ख़ुश हुए। उनकी ख़ुशी का अंदाज़ा उनके अशआरों से लगाया जा सकता है। दिल्ली में अपने दोस्तों को खैरियत का ख़त लिखते हुए वह कहते हैं-
" लोग कहते हैं वह जा पहुँचा बनारस ज़िंदा
हमको उस घास के तिनके से ये उम्मीद न थी"
बनारस पर उनके लिखे गए अशआरों में जो गौरतलब बात है वह यह कि ग़ालिब ने बनारस में शव या मौत को दर्ज़ करने के बजाए वहाँ की आबोहवा में रवां जिंदगी को तरज़ीह दी है। मणिकर्णिका मसनवी के परिदृश्य से गायब है।
ग़ालिब बनारस की रूहानी और रूमानी फ़ज़ाओं से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपने दोस्त मौलवी मोहम्मद अली ख़ान को यह बात ख़त में भी लिखी कि,
"बनारस आने,शहर देखने और कुछ समय यहाँ रहने के बाद इस मुक़ाम से उनकी अजनबियत ख़त्म हो गयी है।इस बुतखाने में बजाए जाने वाले शंखों की आवाज़ें सुनकर वे ख़ुशी महसूस करते हैं। बनारस ने उनका दिल मोह लिया है। अब उन्हें दिल्ली की याद भी नहीं आती।"
ग़ालिब वह मक़ाम हासिल कर चुके हैं एक आम पाठक का उनके लिखे का विश्लेषण आफ़ताब को चिराग़ दिखाना होगा। फ़िर भी अपने अशआरों में वह उस मुक़ाम पर खड़े दिखते हैं जहाँ विभिन्न धर्म और उनसे जुड़ी आस्थाएं एक दूसरे से घुलमिल जाती हैं।
मसनवी का हिन्दी अनुवाद न सिर्फ़ इसके पढ़े जाने को आसान बनाता है बल्कि उस हक़ीकत से भी रूबरू करवाता है कि अरसा पहले मिट चुकी दूरियों को हम फ़िर से खाई खोद नफ़रत से पाट रहे हैं। इंसान को इंसान मानने की कुव्वत हम खो बैठे हैं। मज़हबी दूरियां बढ़ाने की निर्लज्ज दुष्चेष्टाएँ निरंतर जारी हैं। ऐसे सामाजिक परिदृश्य में मसनवी से गुज़रते हुए मन बार-बार ग़ालिबन यही कहता है,
*शर्म तुमको मगर नहीं आती*...'
(पुस्तक : चिराग़ ए देर, मिर्ज़ा ग़ालिब, मूल फारसी अनुवाद सादिक़, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित वर्ष 2018 से उद्धत।)