अनिल जनविजय का आलेख त्रिलोचन

आज त्रिलोचन जी की पुण्य तिथि है। बारह बरस पहले मैंने ये दो संस्मरण आज ही के दिन लिखे थे।


 


अनिल जनविजय



त्रिलोचन 


आदरणीय त्रिलोचन जी का निधन हो गया, यह जानकर मैं बहुत उद्वेलित हुआ हूँ । त्रिलोचन जी से कभी मेरी बहुत गहरी दोस्ती थी। तब मैं सिर्फ़ बीस-इक्कीस साल का था और त्रिलोचन जी साठ-इकसठ के । उनके साथ मेरी ख़ूब घुटती थी । मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था । और उन्हीं की तरह फक्कड़ था । उनसे मेरी मुलाकात बाबा नागार्जुन ने कराई थी । 


त्रिलोचन जी दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू-हिन्दी शब्दकोश की किसी परियोजना में काम कर रहे थे । बस, मैं रोज़ सवेरे उनके दफ़्तर पहुँच जाता और देर शाम तक उन्हीं के साथ रहता । कितनी ही बार ऐसा हुआ कि मुझे चाय तक त्रिलोचन जी पिलाते थे क्योंकि उन दिनों मेरे पास चाय तक के पैसे नहीं होते थे । जब उनके पास भी पैसे नहीं होते थे, तो वे मुझे देख कर बड़े बेचैन हो जाते थे । उनकी वह बेचैनी मुझ से देखी नहीं जाती थी । लेकिन उनकी बातों का रस ही मेरा पेट भरने के लिए काफ़ी होता था ।


एक बार मैं दो दिन का भूखा था । पता नहीं कैसे यह बात त्रिलोचन जी भाँप गए थे । उस दिन उन्होंने मुझे अपने साथ चलने और खाना खाने का निमन्त्रण दिया । त्रिलोचन जी उन दिनों दिल्ली में माडल टाऊन में एक मकान के तिमंज़िले पर किराए पर रहते थे । दो छोटे-छोटे कमरे थे, जिनमें से एक कमरा बहुत छोटा-सा था, जिसमें अम्माँ (त्रिलोचन जी की पत्नी, जिन्हें मैं अम्माँ कहकर ही पुकारता था) ने रसोई बना रखी थी । 


तो उस दिन हम दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय से पैदल चलकर जब त्रिलोचन जी के घर माडल टाउन में पहुँचे तब-तक अन्धेरा हो चुका था । समय होगा यही कोई आठ बजे का । अम्माँ त्रिलोचन जी को देख कर कुछ बुड़बुड़ाने लगी थीं । त्रिलोचन जी ने पहले ख़ुद अपना हाथ और मुँह धोया और फिर मुझ से हाथ-मुँह धोने को कहा । मैं हाथ-मुँह धो ही रहा था कि तब तक त्रिलोचन जी ने अम्माँ को यह बता दिया --


"अनिल भी आज हमारे साथ ही खाना खाएँगे" ।


बस अम्माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर था । अम्माँ ज़ोर-ज़ोर से त्रिलोचन जी को डाँटने लगीं । पता यह लगा कि त्रिलोचन जी एक दिन पहले शाम को घर से यह कहकर निकले थे कि वे आटा लेने जा रहे हैं और उसके बाद फिर अगले दिन मेरे साथ ही घर में घुसे थे । वे भूल गए थे कि आटा भी लाना है । अम्माँ दो दिन से भूखी थीं । और खुद त्रिलोचन जी भी । त्रिलोचन जी ने मुझे बताया कि बात यह नहीं है । उनका ख़याल था कि इतना आटा तो घर में था ही कि तीन चार दिन निकल जाएँ । इसलिए उन्होंने चिन्ता नहीं की । लेकिन अब क्या हो ? न आटा ही घर में था और न ही जेब में कानी-कौड़ी । 


कुछ देर तक त्रिलोचन जी अम्माँ से बहस करते रहे । फिर मुझे लेकर निकल पड़े । बोले -- चलो, तुम्हें खाना खिलाकर लाता हूँ । मैं मना करता रहा पर उन्होंने मेरी एक न सुनी । हम अजय सिंह के घर पहुँचे । रात के दस बज रहे थे । उन दिनों शमशेर जी अजय सिंह के साथ रहते थे । अजय सिंह भी वहीं माडल टाऊन में रहा करते थे । जब हम अजय जी के घर पहुँचे तो देखा कि उनके घर में सिर्फ़ एक ही कमरे की बत्ती जल रही है । त्रिलोचन जी ने डरते-डरते दरवाज़ा खटखटाया । एक बार कुण्डी खड़खड़ाने पर ही तुरन्त ही दरवाज़ा खुल गया । दरवाज़े पर अजय जी थे । त्रिलोचन जी को देखकर आश्चर्यचकित हुए और कहा --


"अरे आप ? इतनी देर से ? क्या हो गया ? सब ठीक तो है न ?"


त्रिलोचन जी ने कहा -- "हाँ, सब ठीक-ठाक है । शमशेर जी हैं क्या ? जाग रहे हैं या सो रहे हैं ? बस, उनसे मिलने का मन हुआ और हम चले आए । इनसे मिलिए । इन्हें जानते हैं ? ये अनिल हैं । ये भी कविता लिखते हैं ।"


अजय जी ने हमें अन्दर आने को कहा और शमशेर जी को बुलाने चले गए । शमशेर जी तब तक लेट चुके थे । लेकिन यह पता लगने पर कि त्रिलोचन जी मिलने आए हैं, तुरन्त उठकर आए और पूछा -- "क्या बात है, सब ठीक तो है न ।"


त्रिलोचन जी ने कहा --"हाँ, सब ठीक है । ये अनिल हैं । कविता लिखते हैं । आप से मिलना चाहते थे, इसलिए आपसे मिलवाने के लिए ले आया । फिर कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रहीं ।


त्रिलोचन जी ने पूछा --"खाना-वाना हो गया ।"


अजय जी ने बताया -- हाँ, सर्दियों के दिन हैं, इसलिए जल्दी ही खा लेते हैं।" उसके बाद उन्होंने तुरन्त ही पूछा -- और आप लोगों ने खाना खा लिया ।


त्रिलोचन जी ने कहा --" हाँ, हमने भी जल्दी ही खा लिया था । इनका पता नहीं । इनसे पूछ लीजिए ।"


मैंने भी यही बताया कि मैं खाना खा चुका हूँ । हालाँकि त्रिलोचन जी ने दो बार कहा मुझसे --"नहीं खाया हो तो खा लो ।"


लेकिन मैंने दोनों बार यही कहा कि मैं खाना खा चुका हूँ । थोड़ी देर और बैठ कर हम लोग वहाँ से निकल पड़े । बाहर निकल कर त्रिलोचन जी ने मुझ से कहा --"आप तो खा ही सकते थे ।"


मेरी आँखों में आँसू आ गए । मैंने कहा --"और आप भूखे रहते । घर पर अम्माँ भी तो भूखी हैं ।"


इस पर त्रिलोचन जी ने कहा --"तो क्या हुआ...।" और फिर मौन धारण कर लिया ।


रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे । त्रिलोचन जी के घर तक हम दोनों एकदम मौन लौटे । घर पहुँचे तो अम्माँ जाग रही थीं । मुझे देखकर वे अपनी खाट से उठीं और रसोई में सोने के लिए चली गईं । रसोई में कोई चारपाई नहीं थी । उन्होंने ज़मीन पर ही अपनी दरी बिछा ली थी । यह देखकर मैं त्रिलोचन जी से कहता रहा कि मैं अपने घर चला जाऊँगा आप लोग सोइए । लेकिन त्रिलोचन जी ने मुझे नहीं लौटने दिया । कहा कि सवेरे चाय पीकर जाना । फिर मैंने कहा कि मैं ज़मीन पर दरी बिछा कर सो जाता हूँ । चारपाई पर अम्माँ सो जाएँ । मेरी इस बात पर त्रिलोचन जी ने अपनी चारपाई अम्माँ के लिए रसोई में बिछा दी । और अपनी दरी ज़मीन पर बिछा ली । फिर मेरे बार-बार कहने के बावजूद वे ज़मीन पर ही सोए । 


रात भर हम तीनों में से कोई नहीं सोया। कभी अम्माँ उठतीं । कभी त्रिलोचन जी । मैं तो करवटें बदल ही रहा था । सुबह होते ही त्रिलोचन जी ने अम्माँ से चाय बनाने को कहा । अम्माँ ने बताया कि खाण्ड नहीं है और दूध भी । लेकिन फिर भी अम्माँ ने बिना चीनी और दूध की चाय मुझे पीने के लिए दी । मैंने वह चाय पी । सच मानिए उससे मीठी चाय मैंने आज तक नहीं पी है । उसमें स्नेह की जो मिठास घुली हुई थी, उस मिठास के लिए आज तक मन तरसता है । आज मैं पच्चीस बरस से मास्को में हूँ । तब मैं मास्को भी त्रिलोचन जी की बात मानकर ही आया था । अगर तब यहाँ न आया होता तो न जाने आज कहाँ होता ?


2


त्रिलोचन जी नहीं रहे। यह ख़बर इण्टरनेट से ही मिली। मैं बेहद उद्विग्न और बेचैन हो गया। मुझे वे पुराने दिन याद आ रहे थे, जब मैं क़रीब-क़रीब रोज़ ही उनके पास जाकर बैठता था। बतरस का जो मज़ा त्रिलोचन जी के साथ आता था, वह बात मैंने किसी और कवि के साथ कभी महसूस नहीं की।


त्रिलोचन जी से बड़ा गप्पबाज़ भी नहीं देखा। गप्प को सच बनाकर कहना और इतने यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत करना कि उसे लोग सच मान लें, त्रिलोचन को ही आता था। नामवर जी त्रिलोचन के गहरे मित्र थे। वे उनकी युवावस्था के मित्र थे, इसलिए उनकी ज़्यादातर गप्पों के नायक भी वे ही होते थे। शुरू-शुरू में जब उनसे मुलाकात हुई थी तो मैं उनकी बातों को सच मानता था लेकिन बाद में पता लगा कि ये सब उनकी कपोल-कल्पनाएँ थीं। बाद में मैं भी उन्हें ऐसी ही कहानियाँ और किस्से बना-बनाकर सुनाने लगा। हिन्दी के चर्चित कवियों, लेखकों और आलोचकों को लेकर वे किस्से होते थे। जिनमें दस से पन्द्रह प्रतिशत यथार्थ का अंश रहता था, बाक़ी कल्पना की उड़ान। बस, इसी बात पर मेरी उनकी दोस्ती बढ़ने लगी और हम दोस्त हो गए।


वे मुझ से पूरे चालीस साल बड़े थे। लेकिन उनका व्यवहार मुझ से हमेशा ऎसा रहा, मानो मैं ही उनसे बड़ा हूँ। उन दिनों आदरणीय अशोक वाजपेयी मध्यप्रदेश सरकार में संस्कृति सचिव थे और यह समझिए कि भारत भर के कवियों, चित्रकारों, नाटककारों, नर्तकों, संगीतकारों --- सभी की मौज हो गई थी। जिन्हें भारत के सरकारी हलकों में कोई टके को नहीं पूछता था, हिन्दी के उन लेखकों को, प्रतिष्ठित लेखकों को और कलाकारों को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मान-सम्मान दिया जाने लगा। भोपाल में कलाओं के केन्द्र के रूप में अशोक वाजपेयी भारत-भवन का निर्माण करा रहे थे। तभी वाजपेयी जी ने एक आन्दोलन-सा चलाया ---"कविता की वापसी"। मध्यप्रदेश का पूरा सरकारी संस्कृति विभाग कविता को वापिस लाने में जुट गया। वाजपेयी जी ने मध्यप्रदेश के हिन्दी के कवियों और हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों के कविता- संग्रहों की सौ-सौ प्रतियाँ खरीदने की घोषणा कर दी। बस, फिर क्या था। प्रकाशकों की बन आई। प्रकाशकों ने मध्यप्रदेश के कवियों को ढूँढ़ना शुरू किया और हर छोटे-बड़े कवि का कविता-संग्रह छप कर बाज़ार मे आ गया। लेकिन 'कविता की वापसी' का फ़ायदा यह हुआ कि हिन्दी के उन बड़े-बड़े कवियों के संग्रह भी छपे, जो मध्यप्रदेश सरकार द्वारा की जाने वाली उस ख़रीद में आ सकते थे।


संभावना प्रकाशन, हापुड़ ने भी बहुत से कवियों को छापने की योजना बनाई। उन्हीं में बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी के कविता-संग्रह भी थे। मैं उन दिनों हिन्दी में एम० ए० कर रहा था और बेरोज़गार था। संभावना प्रकाशन के मालिक और हिन्दी के बेहद अच्छे और प्रसिद्ध कहानीकार और संस्मरणकार भाई अशोक अग्रवाल ने मेरी मदद करने के लिए पाँच कविता-संग्रहों के प्रोडक्शन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी। उनमें त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह 'ताप के ताए हुए दिन' और बाबा नागार्जुन का कविता-संग्रह 'खिचड़ी-विप्लव देखा हमने' भी शामिल थे। त्रिलोचन जी का कविता संग्रह क़रीब तेईस साल बाद आ रहा था। इससे पहले 1957 में उनका 'दिगन्त' छपा था। 1957 मेरा जन्म-वर्ष भी है। संयोग कुछ ऎसा हुआ कि 28 जुलाई को, जिस दिन त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह छप कर आया उस दिन मेरा जन्मदिन था। तो मैं बाइण्डर के यहाँ से "ताप के ताए हुए दिन' की पहली प्रति लेकर त्रिलोचन जी के पास पहुँचा। क़िताब अभी गीली थी और उसकी बाइण्डिंग पूरी तरह से सूखी नहीं थी।


त्रिलोचन जी पुस्तक देखकर प्रसन्न हुए। उनके मुख पर मुस्कराहट छा गई। बड़ी देर तक वे अपने उस संग्रह को उलटते-पलटते रहे। फिर बोले -- पूरे तेईस साल बाद आई है क़िताब। मैंने कहा -- जी हाँ, मैं भी तेईस साल का हूँ। आज ही मेरा जन्मदिन है। मेरे जन्मदिवस पर आपको मिला है यह उपहार। लेकिन आपका जन्मदिन भी तो आने वाला है जल्दी ही। यह समझिए कि आपके जन्मदिवस पर आपको यह उपहार मिला है। त्रिलोचन जी हँसे अपनी मोहक, लुभावनी हँसी। फिर बोले---चलिए, इस ख़ुशी में आपको पान खिलाते हैं। एक पन्थ दो काज हो जाएँगे। आपका जन्मदिन भी मना लेंगे और इस क़िताब के आगमन की ख़ुशी भी मना लेंगे।


हम लोग पान वाले के ठीये पर पहुँचे। पान खाया। उन्होंने कुछ देर पान वाले से गप्प लड़ाई। उसके भाई का, बच्चों का और घरैतन का हाल-चाल पूछा। उसके बाद हम लोगों ने वहीं पास के दूसरे ठीये पर जाकर चाय पी। चाय पीने के बाद हम दोनों उनके दफ़्तर में वापिस लौट आए। शाम को मुझे किताबों का बण्डल लेकर हापुड़ जाना था। मैं ज़रा जल्दी में था। मैंने त्रिलोचन जी से विदा माँगी। त्रिलोचन जी ने कहा-- एक मिनट रुकिए। उसके बाद उन्होंने 'ताप के ताए हुए दिन' की वह पहली प्रति उठाई और उस पर लिखा-- 'अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।' त्रिलोचन जी का वह कविता-संग्रह इस समय भी जब मैं उन्हें स्मरण कर रहा हूँ, मेरे सामने रखा हुआ है। उस संग्रह पर सबसे अन्तिम पृष्ठ पर मेरी लिखावट में छह पंक्तियाँ लिखी हुई हैं। उन्हीं दिनों कभी लिखी थीं मैंने। वे काव्य-पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :


हिन्दी के सम्पादक से मेरी बस यही लड़ाई
वो कहता है मुझ से, तुम कवि नहीं हो भाई
तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है
जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है
इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है
नागार्जुन तो है, पर त्रिलोचन नहीं है।


नीचे : शमशेर, त्रिलोचन और नागार्जुन की वह दुर्लभ तस्वीर, जिसमें दिवंगत श्याम कश्यप, नन्दकिशोर नवल, दिवंगत कमला प्रसाद और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह भी हैं।