आज यानी 28 नवम्बर को स्टीफन स्वाइग का जन्मदिन है। वरिष्ठ कथाकार ओमा शर्मा ने उनके कालजयी साहित्य को हिंदी में उपलब्ध करवाया। आज स्वाइग के जन्मदिन पर ओमा जी की ही टिप्पणी यहाँ साझा कर रहा हूँ।
आज यानी 28 नवम्बर को, अपने प्रिय लेखक स्टीफन स्वाइग का जनम दिन है। तो यादों में ही सही, जनम दिन मुबारक स्वाइग। लेखकी का कितना कुछ तुमसे पाया है और अपने लिखे से लगातार और और पाने की प्रेरणा देते रहते हो। सन 1931 में इसी रोज को याद करते हुए तुमने जो अपनी आत्मकथा में लिखा, उसे नए-पुराने दोस्तों के साथ साझा कर रहा हूँ।
".... तो इस तरह कामकाज, सैर-सपाटे, पढ़ते-लिखते, संग्रह करते और ज़िन्दगी का आनंद लेते हुए साल गुज़रते रहे। नवम्बर 1931 की एक सुबह जब मैं उठा तो पता चला मैं पचास बरस का हो गया हूँ। दूधिया बालों वाले साल्जबर्ग के उस भलमनजात डाकिए के लिए यह दिन बड़ा मनहूस रहा क्योंकि खतों और टेलीग्रामों के अच्छे खासे जखीरे को लेकर बुढ़ऊ को दुर्गम सीढ़ियाँ घिसटनी पड़ीं। इसकी वजह यह थी कि जर्मनी में किसी लेखक के पचासवें जन्मदिन को अख़बारों में व्यापक तौर पर मनाने का रिवाज था। उन्हें खोलने-पढ़ने से पहले मैं पल भर रुककर सोचने लगा कि इस दिन की मेरे लिए क्या अहमियत है। पचासवाँ साल एक निर्णायक मोड़ होता है। मुड़कर देखने लगो तो घबराहट होती है कि कितना सफर तो पूरा हो गया। मन में सवाल भी उठा कि क्या अभी और कुछ बकाया है। मैं अपनी ज़िन्दगी का अवलोकन करने लगा। अपने घर से जैसे मैं आल्प्स पर्वत शृंखला और घाटी के ढलान को निहारता था, वैसे ही उन पचास बरसों को निहारने लगा। मैंने कबूल किया कि ज़िन्दगी का एहसानमन्द न होना बेईमानी होगी। आखिर इसने मेरी उम्मीदों या जो मैं अपनी काबलियत समझता था, उससे ज़्यादा और बेइन्तहा ज़्यादा, इनायत मुझे बख़्शी थी। साहित्य के माध्यम से मैं अपने को विकसित, अपने वजूद का जो इज़हार करना चाहता था, उसने लड़कपन में भरे मेरे किसी भी सपने से कहीं ज़्यादा पाँव पसार लिए थे। मेरे जन्मदिन पर इन्जल फरलाग ने सभी भाषाओं में प्रकाशित मेरी किताबों की सूची छापी थी जो खुद एक किताब जितनी थी। कोई भाषा तो वहाँ गैर-हाजिर नहीं थी। न बुलगारियाई या फिन्नीज, न पुर्तगाली या अरमेनियाई, न चीनी या मराठी। मेरी किताबें ब्रेल में, शार्टहैण्ड में और जानी-अनजानी हर शक्लो-सूरत और रंग में थीं। मेरे विचार और शब्द बेशुमार लोगों तक जा पहुँचे थे। खुदी के चौखटे से खींचकर मैंने अनन्त में अपना अस्तित्व फैला दिया था। अपने दौर की बेहतरीन शख़्सियतों से मेरी जाती दोस्ती हो गई थी। मैंने एक से एक मुकम्मल प्रस्तुति का लुत्फ़ उठाया था। इस धरती के सबसे खूबसूरत नजारे, इसके लाजवाब शहर और बला की पेंटिंग्स को देखने का मैंने आनंद लूटा था। मैंने अपनी आजादी बरकरार रखी थी। किसी नौकरी-पेशे पर मैं निर्भर था नहीं। अपने काम में मुझे मजा आता था। और तो और दूसरों को भी इससे आनंद मिलता था। अब किसकी नज़र लग सकती है? वो रहीं मेरी किताबें : क्या वे नष्ट कर दी जाएंगी? उस घड़ी मैंने निर्व्याज ऐसा सोचा। मेरे पास घर था: क्या मुझे इससे बेदखल कर दिया जाएगा? मेरे दोस्त थे: क्या कभी मैं उनसे हाथ धो बैठूँगा? बिना मृत्यु या बीमारी के डर के मैं सोचने लगा। दूर-दूर तक इसका ख़्याल किए बगैर कि अभी मुझे क्या कुछ झेलना बकाया था। किसी बेघर शरणार्थी की तरह मुझे फिर से कोने-कोने, सात-समुन्दर दर-बदर भटकना पड़ेगा, मेरा पीछा किया जाएगा... मेरी किताबें जला दी जाएँगी, प्रतिबंधित हो जाएँगी... जर्मनी में मेरे नाम को किसी खूनी की तरह पुकारा जाएगा और मेरे सामने मेज पर पड़े ख़तों और टेलीग्रामों को भेजने वाले मेरे दोस्तों का, खुदा-ना-ख्वास्ता मिलने पर रंग उतर जाएगा! तीस या चालीस बरस की मेहनत-लगन यूँ झपक दी जाएगी कि उसका नामोनिशां नहीं बचेगा? ऊपर से पुख़्ता और सलामत दिखती जिस ज़िन्दगी का मैं अवलोकन कर रहा था, उसका ढांचा भरभरा जाएगा और अपनी ज़िन्दगी की शाम में-- जहाँ पहले से ही शक्ति-ह्रास हो गया है और रूह बेचैन है-- मुझे फिर से सब कुछ शुरू करने की मजबूरी उठानी पड़ेगी। सही बात है, इस दिन भी कोई ऐसी फिजूल, वाहियात बातें सोचता है। मेरे सुकून का सबब था। मैं अपने काम से और इसीलिए ज़िन्दगी से प्यार करता था। दीन-दुनिया की चिन्ताओं से मैं बरी था। मैं आगे यदि एक लाइन भी न लिखूँ तब भी मेरी किताबें मेरा गुजारा कर देतीं। लग रहा था ज़िन्दगी में हासिल करने को कुछ बचा ही न हो। लग रहा था किस्मत नकेल दी गई है। सुरक्षा का कवच, जो मैंने पहले कभी अपने माता-पिता के जमाने में देखा था और युद्ध के दरम्यान जो गायब हो गया था, उसे अपने बलबूते मैंने फिर हासिल कर लिया था। और कोई तमन्ना क्या होगी?
मगर क्या अजीब बात कि इसी बात से मुझे मन ही मन घबराहट होने लगी कि इस घड़ी मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं है। भीतर से किसी ने पूछा- नहीं मैंने खुद नहीं- कि क्या वाकई यह ठीक रहेगा कि ज़िन्दगी यूँ ही चलती रहे... शान्ति से, करीने से, फलते-फूलते, इत्मीनान से... बिना किसी दबाव या इम्तहान के? ज़िन्दगी की ये पुर-सलामती और सुख-सुविधाएँ क्या मेरे असल वजूद के बेमेल नहीं थीं? सोचते-विचारते मैं घर में टहलने लगा। गए बरसों में यह कितना सुन्दर हो गया था, ठीक वैसा जैसा मैं चाहता था। मगर क्या मुझे हमेशा इसमें रहना पड़ेगा? हमेशा उसी डेस्क पर बैठकर किताबें लिखते हुए... एक किताब के बाद फिर दूसरी किताब, रॉयल्टी के बाद और ज़्यादा रॉयल्टी लेते हुए... अन्ततः एक ऐसा इज़्जतदार शरीफ जो सलीके से अपने नाम और काम के लिए जीता है, वक्त के पेचोखम, तमाम खतरों और खटकों से जुदा-जुदा? क्या यह हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा, मेरे साठा होने तक, मेरे सत्तर पार करने तक या जब तक भी गाड़ी चलती है? मेरे अन्तस की आवाज कहती रही कि क्या अच्छा हो अगर ज़िन्दगी में कुछ ऐसा हो जाए जो मुझे ज़्यादा बेचैन, ज़्यादा उत्सुक और जवां बना दे...जो मुझे नए से नए, और ग़ालिबन ज़्यादा खतरनाक मुकाबले के लिए ललकारे? हर कलाकार के भीतर एक अजीबोगरीब दोकड़ा बसता है : ज़िन्दगी यदि उसे ताबड़तोड़ खसोटती है तो वह शान्ति के लिए बिलबिलाता है। मगर शान्ति मिली नहीं कि वह उन्हीं पुराने हिचकोलों को तरसने लगता है। इसलिए इस पचासवें जन्मदिन पर मेरे दिल में बस यही कुटिल इच्छा मरोड़े मार रही थी... कि काश कुछ ऐसा हो जाए जो एक बार फिर इन गारंटियों और सुख-सुविधाओं को चीरकर मुझसे परे कर दे ताकि मेरा न सिर्फ काम करते रहना अनिवार्य हो जाए बल्कि मैं कुछ नया भी शुरू कर सकूँ। क्या यह बढ़ती उम्र, थका-मांदा या आलसी होते जाने का डर था? या यह कोई रहस्यमयी अंदेशा था जो मेरी रूह की खातिर मुझसे दुश्वार ज़िन्दगी की तमन्ना करवा रहा था? मैं नहीं जानता।
मैं नहीं जानता क्योंकि बेखुदी के झुटपटे के इस अजीब लम्हे में कोई बनी-सुघड़ी तमन्ना तो आकार ले नहीं रही थी। मेरी सोची-समझी इच्छा से जुड़ी-रमी तो यकीनन नहीं। किसी गुरेजां ख़्याल की कौंध से ज़्यादा यह कुछ नहीं था... शायद ख़्याल भी मेरा अपना नहीं था मगर जिस गहराई से इसने दस्तक दी उसकी मुझे कुछ हवा नहीं थी। शायद इसके गर्भ में वह अज्ञात, अबोध्य शक्ति रही हो जिसने मेरी ज़िन्दगी में इतनी ज़्यादा इनायतें बख़्शीं कि मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। और लो, बड़ी हुकुम-बरदारी से, मेरी ज़िन्दगी की नब्ज़ को नेस्तानाबूद करने का इसने काम भी शुरू कर दिया... ताकि मैं इसके घूरे से एक बिल्कुल अलग, मुश्किल और ज़्यादा दुश्वार ज़िन्दगी की नई इमारत खड़ी करने में लग जाऊँ।
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इस इबारत का ही असर था जो अपने पहले कहानी संग्रह के आने से पहले ही मैं 'The world of yesterday' के हिन्दी अनुवाद में जुट गया। कहीं ये इच्छा प्रबल थी कि एक लेखक की आत्मकथा कैसी होती है, वह अपने को दरकिनार कर कैसे अपने वक्त की सलवटों और आहटों को पकड़ता है, कैसे कला-कलाकारों की दुनिया इतनी प्रेरक और रोचक हो सकती है... या फिर यही कि लेखक की आत्मकथा का अभिप्राय अपने जीवन के हर अनर्गल की उल्टी करना न होकर व्यापक सरोकारों के अनुभवों का आत्मीय चयन होता है... और सच, हिन्दी के अधिसंख्य युवा पाठकों और वरिष्ठों ने 'वो गुजारा जमाना ' के रूप में साया मेरे प्रयास को जो स्नेह दिया वह मेरी पूंजी है। बाद में, स्वाइग के नक़्शे-पा का पीछा करते हुए जब मैंने 'अन्तरयात्राएं वाया वियना' लिखी तो उसे भी वही व्यापक स्नेह और समर्थन मिला। इस स्नेह-दुलार के लिए मैं आप सब मित्र -पाठकों का आभारी हूँ। स्वाइग की कुछ कहानियों को आप तक कभी पहुंचाने की कामना अभी शेष है। उसे देर-सबेर करना ही है। भाई देश निर्मोही का इस बाबत मुझे पूरा विश्वास है।
(देश निर्मोही की फेसबुक वॉल से साभार।)